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कर्मों का आंशिक दोष भी न लगे, ऐसा कोई और भी उपाय है क्या भगवन्?
हाँ, सांख्ययोग है। जिसकी बुद्धि सब जगह सर्वथा आसक्तिरहित होती है, जिसका शरीर वश में होता है और जिसको किसी वस्तु आदि की किन्चिन्मात्र भी परवाह नहीं होती, ऐसा मनुष्य सांख्ययोग के द्वारा नैष्कर्म्य-सिद्धि (ब्रह्म) को प्राप्त हो जाता है अर्थात् उसके सब कर्म अकर्म हो जाते हैं और उसे कर्मों का आंशिक दोष भी नहीं लगता।।49।।
उस नैष्कर्म्यसिद्धि को प्राप्त करने का क्या क्रम है?
अन्तःकरण की शुद्धिरूप सिद्धि को प्राप्त हुआ मनुष्य ब्रह्म को, जो कि ज्ञान की परानिष्ठा है, जिस क्रम से प्राप्त होता है, उस क्रम को तुम मेरे से संक्षेप में ही समझो। जो सात्त्विकी बुद्धि से युक्त वैराग्य के आश्रित, एकान्त में रहने के स्वभाववाला और नियमित भोजन करने वाला साधक धैर्यपूर्वक इन्द्रियों का नियमन करके, शरीर-वाणी-मन को वश में करके, शब्दादि विषयों का त्याग करके और राग-द्वेष को छोड़कर निरन्तर परमात्मा के ध्यान में लगा रहता है, वह अहंकार, हठ, घमण्ड, काम, क्रोध और परिग्रह (भोगबुद्धि से वस्तुओं के संग्रह) का त्याग करके तथा ममता-रहित एवं शान्त होकर ब्रह्मप्राप्ति का पात्र हो जाता है।।50-53।।
ऐसा पात्र होने पर क्या होता है भगवन्?
वह ब्रह्मभूत-अवस्था को प्राप्त प्रसन्न मनवाला साधक न तो किसी के लिये शोक करता है और न किसी की इच्छा करता है तथा उसका सम्पूर्ण प्राणियों में समभाव हो जाता है। ऐसे साधक को मेरी पराभक्ति प्राप्त हो जाती है।।54।।
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