गीता माधुर्य -रामसुखदास पृ. 147

गीता माधुर्य -स्वामी रामसुखदास

अठारहवाँ अध्याय

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शूद्र के कौन-से कर्म हैं?
चारों वर्णों की सेवा करना- यह शूद्र का स्वाभाविक कर्म है।।44।।

अपने-अपने स्वाभाविक कर्मों को करने से क्या होता है भगवन्?
अपने-अपने स्वाभाविक कर्मों में निष्काम भाव से तत्परतापूर्वक लगा हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। अपने स्वाभाविक कर्मों में लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार परमात्मा को प्राप्त होता है, उस प्रकार को तू मेरे से सुन।।45।।

जिस परमात्मा से सम्पूर्ण संसार पैदा हुआ है और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, उस परमात्मा का अपने कर्मों के द्वारा पूजन करके मनुष्य सिद्धि को (परमात्मा को) प्राप्त हो जाता है।।46।।

अपने ही कर्मों का अनुष्ठान क्यों करें भगवन्?
भैया! जिसका अपने लिये निषेध किया गया है परन्तु उसमें बहुत-से गुण हैं, ऐसे गुणयुक्त परधर्म से अपना दोषयुक्त धर्म (स्वाभाविक कर्म) श्रेष्ठ है; क्योंकि स्वभाव से नियत किये हुए स्वधर्मरूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप का भागी नहीं होता। हे कुन्तीनन्दन! दोषयुक्त होने पर भी अपने धर्म का त्याग नहीं करना चाहिये; क्योंकि जैसे आग जलाने के आरम्भ में धुआँ होता ही है, ऐसे ही प्रत्येक कर्म के आरम्भ में कोई-न-कोई दोष होता ही है।।47-48।।

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गीता माधुर्य -रामसुखदास
अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 7
अध्याय 2 26
अध्याय 3 36
अध्याय 4 44
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अध्याय 7 67
अध्याय 8 73
अध्याय 9 80
अध्याय 10 86
अध्याय 11 96
अध्याय 12 100
अध्याय 13 109
अध्याय 14 114
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अध्याय 18 153

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