ऐसा जानने से क्या होगा?
हे पार्थ! जो मनुष्य इस शरीरी को अविनाशी, नित्य, जन्मरहित और अव्यय जानता है, वह कैसे किसी को मार सकता है और कैसे किसी को मरवा सकता है?।।21।।
तो फिर मरता कौन है भगवन्?
अरे भैया! शरीर मरता है। मनुष्य जैसे पुराने कपड़ों को छोड़कर नये कपड़ों को धारण करता है, ऐसे ही यह शरीरी पुराने शरीरों को छोड़कर दूसरे नये शरीरों में चला जाता है।।22।।
नये-नये शरीरों को धारण करने से इसमें कोई-न-कोई विकार तो आता ही होगा?
नहीं, इसमें कभी कोई विकार नहीं आता, क्योंकि इस शरीरी को शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती, जल गीला नहीं कर सकता और वायु सुखा नहीं सकती।।23।।
यह शस्त्र आदि से कटता, जलता, गलता और सूखता क्यों नहीं?
यह शरीरी काटा भी नहीं जा सकता, जलाया भी नहीं जा सकता, गीला भी नहीं किया जा सकता और सुखाया भी नहीं जा सकता; क्योंकि यह नित्य रहने वाला, सबमें परिपूर्ण, स्थिर स्वभाववाला, अचल और सनातन है। यह देही इन्द्रियों आदि का विषय नहीं है अर्थात् यह प्रत्यक्ष नहीं दीखता। यह अन्तःकरण का भी विषय नहीं है और इसमें कोई विकार भी नहीं होता है। इसलिये इस देही हो ऐसा जानकर तुझे शोक नहीं करना चाहिये।।24-25।।
इस शरीरी को निर्विकार मानने पर तो शोक नहीं हो सकता, पर इसे विकारी मानने पर तो शोक हो ही सकता है?
हे महाबाहो! अगर तू इस शरीरी को नित्य पैदा होने वाला और नित्य मरने वाला भी मान ले तो भी तुझे इसका शोक नहीं करना चाहिये; क्योंकि जो पैदा हुआ है, वह जरूर मरेगा और जो मर गया है, वह जरूर पैदा होगा- इस नियम को कोई हटा नहीं सकता। अतः शरीरी को लेकर तुझे शोक नहीं करना चाहिये।।26-27।।
शरीरी को लेकर शोक नहीं करना चाहिये, यह तो ठीक है, पर शरीरी को लेकर तो शोक होता ही है भगवन्!
शरीर को लेकर भी शोक नहीं हो सकता; क्योंकि हे भारत! सभी प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद फिर अप्रकट हो जायँगे, केवल बीच में प्रकट दीखते हैं। अतः इसमें शोक करने की बात ही कौन-सी है?।।28।।
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