गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
चौथा अध्याय
ज्ञानकर्मसंन्यासयोग
देवमेवापरे यज्ञं योगिन: पर्युपासते। इसके सिवा कितने ही योगी देवताओं का पूजनरूपी यज्ञ करते हैं और कितने ही ब्रह्मरूप अग्नि में यज्ञ द्वारा यज्ञ को ही होमते हैं। श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निनषु जुह्वति। और कितने ही श्रवणादि इंद्रियों का संयमरूप यज्ञ करते हैं और कुछ शब्दादि विषयों को इंद्रियाग्निन में होमते हैं। टिप्पणी- सुनने की क्रिया इत्यादि का संयम करना एक बात है और इंद्रियों को उपयोग में लाते हुए उनके विषयों को प्रभुप्रीत्यर्थ काम में लाना दूसरी बात है, जैसे भजनादि सुनना। वस्तुत: तो दोनों एक हैं। और कितने ही समस्त इंद्रिय कर्मों को और प्राणकर्मों को ज्ञानदीपक से प्रज्वलित की हुई आत्मसंयरूपी योगाग्निन में होमते हैं। टिप्प्णी- अर्थात परमात्मा में तन्मय हो जाते हैं। द्रव्ययज्ञास्तपोज्ञा योगयज्ञास्तथापरे। इस प्रकार कोई यज्ञार्थ द्रव्य देने वाले होते हैं; कोई तप करने वाले होते हैं। कितने ही अष्टांग योग साधने वाले होते हैं। कितने ही स्वाध्याय और ज्ञान यज्ञ करते हैं। ये सब कठिन व्रतधारी प्रयत्नशील याज्ञिक हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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