गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
चौथा अध्याय
ज्ञानकर्मसंन्यासयोग
निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रह:। जो आशारहित है, जिसका मन अपने वश में है, जिसने सारा संग्रह छोड़ दिया है और जिसका शरीर भर ही कर्म करता है, वह करते हुए भी दोषी नहीं होता। टिप्पणी- अभिमानपूर्वक किया हुआ कुल कर्म चाहे जैसा सात्त्विक होने पर भी बंधन करने वाला है। वह जब ईश्वरार्पण बुद्धि से, बिना अभिमान के होता है, तब बंधनरहित बनता है। जिसका ʻमैं̕ शून्यता को प्राप्त हो गया है, उसका शरीर भर ही कर्म करता है। सोते हुए मनुष्य का शरीर भर ही कर्म करता है, यह कहा जा सकता है। जो कैदी विवश होकर अनिच्छा से हल चलाता है, उसका शरीर ही काम करता है। जो अपनी इच्छा से ईश्वर का कैदी बना है, उसका भी शरीर भर ही काम करता है। खुद तो शून्य बन गया है, प्रेरक ईश्वर है। यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सर:। जो यथालाभ से संतुष्ट रहता है, जो सुख-दु:खादि द्वंद्वों से मुक्त हो गया है, जो द्वेषरहित हो गया है, जो सफलता, निष्फलता में तटस्थ है, वह कर्म करते हुए भी बंधन में नहीं पड़ता है। गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतस:। जो आसक्तिरहित है, जिसका चित्त ज्ञानमय है, जो मुक्त है और जो यज्ञार्थ ही कर्म करने वाला है, उसके सारे कर्म लय हो जाते हैं। ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्र ह्माग्नों ब्रह्मणा हुतम्। यज्ञ में अर्पण ब्रह्म है, हवन की वस्तु हवि ब्रह्म है, ब्रह्म रूपी अग्नि में हवन करने वाला भी ब्रह्म है; इस प्रकार कर्म के साथ जिसने ब्रह्म का मेल साधा है वह ब्रह्म को ही पाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज