गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
तीसरा अध्याय
कर्मयोग
श्रीभगवानुवाच श्रीभगवान बोले- रजोगुण से उत्पन्न होने वाला यह (प्रेरक) काम है, क्रोध है, इसका पेट ही नहीं भरता। यह महापापी है। इसे इस लोक में शत्रु रूप समझो। टिप्पणी- हमारा वास्तविक शत्रु अंतर में रहने वाला काम कहिए या क्रोध कहिए वही है। धूमेनाव्रियते वह्रिर्यथादर्शो मलेन च। जैसे धुएं से आग या मैल से दर्पण अथवा झिल्ली से गर्भ ढका रहता है, वैसै कामादिरूप शत्रु से यह ज्ञान ढका रहता है। आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा। हे कौंतेय! तृप्त न किया जा सकने वाला यह काम रूप अग्नि नित्य का शत्रु है, उससे ज्ञानी का ज्ञान ढका हुआ है। इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते। इंद्रियां, मन और बुद्धि, इस शत्रु के निवास-स्थान हैं। इनके द्वारा ज्ञान का ढककर यह शत्रु देहधारी को बेसुध कर देता है। टिप्पणी- इंद्रियों में काम व्याप्त होने पर मन मलिन होता है, उससे विवेक शक्ति मंद पड़ती है, उसमें ज्ञान का नाश होता है,[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ देखो अध्याय 2, श्लोक 62-64
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