गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
तीसरा अध्याय
कर्मयोग
सक्ता: कर्मण्याविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत। हे भारत! जैसे अज्ञानी आसक्त होकर कर्म करते है, वैसे ज्ञानी को आसक्तिरहित होकर लोकल्याण की इच्छा से कर्म करना चाहिए। न बुद्धिभेदं जनयेज्ञानां कर्मसंगिनाम्। कर्म में आसक्त अज्ञानी मनुष्यों की बुद्धि को ज्ञानी डांवा-डोल न करे, परंतु समत्वपूर्वक अच्छे प्रकार से कर्म करके उन्हें सब कामों में लगावें। प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश:। सब कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किये हुए होते हैं। अहंकार से मूढ़ बना हुआ मनुष्य ʻमैं कर्ता हूं̕ यह मानता है। तत्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयो:। हे महाबाहो! गुण और कर्म के विभाग का रहस्य जानने वाला पुरुष ʻगुण गुणों में बरत रहे है̕ यह मानकर उनमें आसक्त नहीं होता है। टिप्पणी - जैसे श्वासोच्छ्वास आदि क्रियाएं अपने-आप होती है, उनमें मनुष्य आसक्त नहीं होता और जब उन अंगों को व्याधि होती है तभी मनुष्यों को उनकी चिंता करनी पड़ती है या उसे उन अंगों के अस्तित्व का भान होता है, वैसे ही स्वाभाविक कर्म अपने-आप होते हों तो उनमें आसक्ति नहीं होती। जिसका स्वभाव उदार है वह स्वयं अपनी उदारता को जानता तक नहीं, पर उससे दान किये बिना रहा ही नहीं जाता। ऐसी अनासक्ति और अभ्यास ईश्वर कृपा से ही प्राप्त होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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