गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
दूसरा अध्याय
सांख्ययोग
प्रसादे सर्वदु:खानां हानिरस्योपजायते। चित्त की प्रसन्नता से उसके सब दु:ख दूर हो जाते हैं और प्रसन्न्ता प्राप्त हो जाने वाले की बुद्धि तुरंत ही स्थिर हो जाती है। नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना। जिसे समत्व नहीं, उसे विवेक नहीं, उसे भक्ति नहीं और जिसे भक्ति नहीं उसे शांति नहीं है। और जहाँ शांति नहीं , वहां सुख कहाँ से हो सकता है? इन्दियाणां हि चरतां यन्मनोऽनु विधीयते। विषयों में भटकने वाली इंद्रियों के पीछे जिसका मन दौड़ता है, उसका मन वायु जैसे नौका को जल से खींच ले जाता है वैसे ही उसकी बुद्धि को जहाँ चाहे खींच ले जाता है। तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वश:। इसलिए, हे महाबाहो! जिसकी इंद्रियां चारो ओर के विषयों में से निकलकर उसके वश में आ जाती हैं, उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज