गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
दूसरा अध्याय
सांख्ययोग
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्पर:। इन सब इंद्रियों को वश में रखकर योगी को मुझमें तन्मय हो रहना चाहिए, क्योंकि अपनी इंद्रियां जिसके वश में हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है। टिप्पणी- तात्पर्य, भक्ति के बिना - ईश्वर की सहायता के बिना-मनुष्य का प्रयत्न मिथ्या है। ध्यायतो विषयान्पुंस: संगस्तेषूपजायते। विषयों का चिंतन करने वाले पुरुष को उनमें आसक्ति उत्पन्न होती है, आसक्ति में से कामना होती है और कामना में से क्रोध उत्पन्न होता है। टिप्पणी- कामना वाले के लिए क्रोध अनिवार्य है, क्योंकि काम कभी तृप्त होता ही नहीं। क्रोधाद्भवति संमोह: संमोहात्स्मृतिविभ्रम:। क्रोध में से मूढ़ता उत्पन्न होती है, मूढ़ता से स्मृति भ्रांत हो जाती है, स्मृति भ्रांत होने से ज्ञान का नाश हो जाता है और जिसका ज्ञान नष्ट हो गया वह मृतक-तुल्य है। रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्। परंतु जिसका मन अपने अधिकार में है और जिसकी इंद्रियां राग-द्वेष रहित होकर उसके वश में रहती हैं, वह मनुष्य इंद्रियों का व्यापार चलाते हुए भी चित्त की प्रसन्नता प्राप्त करता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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