गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
पहला अध्याय
अर्जुन विषाद योग
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव। इसके सिवा हे केशव! मैं तो विपरीत लक्षण देख रहा हूँ। युद्ध में स्वजनों के मारकर कुछ श्रेय नहीं देखता। न काङक्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च। उन्हें मारकर न मैं विजय चाहता, न राज्य और सुख चाहता; हे गोविन्द! मुझे राज्य का, भोग का या जीवन का क्या काम है? येषामर्थे काङिक्षतं नो राज्यं भोगा: सुखानि च। जिनके लिए राज्य, भोग और सुख की हमने चाहना की वे, ये आचार्य, काका, पुत्र, पितामह, मामा, ससुर, पौत्र, साले और अन्य संबंधीजन जीवन और धन की आशा छोड़कर युद्ध के लिए खड़े हैं। एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन। मुझे ये मार डालें अथवा मुझे तीनों लोक का राज्य मिले तो भी, हे मधुसूदन ! मैं उन्हें मारना नहीं चाहता। तो फिर एक जमीन के टुकड़े के लिए कैसे मारूं? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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