गीता माता -महात्मा गांधी पृ. 43

गीता माता -महात्मा गांधी

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गीता-बोध
अठारहवां अध्‍याय


कर्म की प्रेरणा में तीन वस्‍तुएं होती हैं - ज्ञान, ज्ञेय और परिज्ञान और उसके तीन अंग हैं - इं‍द्रियां, क्रिया और कर्त्ता। जो करना है, वह ज्ञेय है। जो उसकी रीति है, वह ज्ञान है और जानने वाला जो है, वह परिज्ञाता है। इस प्रकार प्रेरणा होने के बाद कर्म होता है। उसमें इंद्रियां कारण होती हैं, जो करने को है वह क्रिया और उसका करने वाला जो है, वह कर्त्ता है। इस प्रकार विचार में से आचार होता है। जिसके द्वारा हम प्राणि- मात्र में एक ही भाव देखें, अर्थात सब कुछ भिन्‍न-भिन्‍न लगते हुए भी गहराई में उतरने पर एक ही भाषित हों तो वह सात्त्विक ज्ञान है।

इससे उलटा, जो भिन्‍न दिखाई देता है, वह भिन्‍न ही भाषित हो तो वह राजस ज्ञान है।

और जहाँ कुछ पता ही नहीं लगता और सब बिना कारण के गड़बड़ लगता है, वह तामस ज्ञान है।

ज्ञान के विभाग की भाँति कर्म के भी विभाग हैं। जहां फलेच्‍छा नहीं है, राग-द्वेष नहीं है, वह कर्म सात्त्विक हैं जहां भोग की इच्‍छा है, जहाँ ʻमैं करता हूंʼ। यह अभिमान है और इससे जहाँ हो-हल्‍ला है, वह राजस कर्म है। जहाँ परिणाम की, हानि की या हिंसा की, शक्ति की परवा नहीं है और जो मोह के वश होकर होता है, वह तामस कर्म है।

कर्म की भाँति कर्त्ता भी तीन तरह के समझने चाहिए। सात्त्विक कर्ता वह है, जिसे राग नहीं है, अहंकार नहीं है, तथापि जिसमें दृढ़ता है, साहस है और जिसे अच्‍छे-बुरे फल से हर्ष- शोक नहीं है। राजस कर्त्ता में राग होता है, लोभ होता है, हिंसा होती है, हर्ष-शोक तो जरूर ही होता है, तो फिर कर्म-फल की इच्‍छा का तो कहना ही क्‍या? और तामस कर्ता अव्‍यवस्थित, दीर्घसूत्री, हठी, शठ, आलसी, संक्षेप में कहा जाय तो संस्‍कार- रहित होता है।

बुद्धि, धृति और सुख के भी भिन्‍न-भिन्‍न प्रकार जानने योग्‍य हैं।

सात्त्विक बुद्धि प्रवृत्ति-निवृत्ति, कार्य-अकार्य, भय-अभय और बंध-मोक्ष आदि का सही भेद करती और जानती है। राजसी बुद्धि यह भेद करने तो चलती है, पर गलत या विपरीत कर लेती है और तामसी बुद्धि तो धर्म को अधर्म मानती है। सब उल्टा ही निहारती है।

धृति अर्थात धारण, कुछ भी ग्रहण करके उससे लगे रहने की शक्ति। यह शक्ति अल्‍पाधिक प्रमाण में सबमें है। यदि यह न हो तो जगत एक क्षण भी न टिक सके। अब जिसमें मन, प्राण और इंद्रियों की क्रिया की समता है, समानता है और एक- निष्‍ठा है, वहाँ धृति सात्त्विकी है और जिसके द्वारा मनुष्‍य धर्म, काम और अर्थ को आसक्तिपूर्वक धारण करता है वह धृति राजसी है। जो धृति मनुष्‍य को निंदा, भय, शोक, निराशा, मद वगैरह नहीं छोड़ने देती, वह तामसी है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता माता
अध्याय पृष्ठ संख्या
गीता-बोध
पहला अध्याय 1
दूसरा अध्‍याय 3
तीसरा अध्‍याय 6
चौथा अध्‍याय 10
पांचवां अध्‍याय 18
छठा अध्‍याय 20
सातवां अध्‍याय 22
आठवां अध्‍याय 24
नवां अध्‍याय 26
दसवां अध्‍याय 29
ग्‍यारहवां अध्‍याय 30
बारहवां अध्‍याय 32
तेरहवां अध्‍याय 34
चौदहवां अध्‍याय 36
पन्‍द्रहवां अध्‍याय 38
सोलहवां अध्‍याय 40
सत्रहवां अध्‍याय 41
अठारहवां अध्‍याय 42
अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना 46
पहला अध्याय 53
दूसरा अध्याय 64
तीसरा अध्याय 82
चौथा अध्याय 93
पांचवां अध्याय 104
छठा अध्याय 112
सातवां अध्याय 123
आठवां अध्याय 131
नवां अध्याय 138
दसवां अध्याय 147
ग्‍यारहवां अध्याय 157
बारहवां अध्याय 169
तेरहवां अध्याय 174
चौहदवां अध्याय 182
पंद्रहवां अध्याय 189
सोलहवां अध्याय 194
सत्रहवां अध्याय 200
अठारहवां अध्याय 207
गीता-प्रवेशिका 226
गीता-पदार्थ-कोश 238
गीता की महिमा
गीता-माता 243
गीता से प्रथम परिचय 245
गीता का अध्ययन 246
गीता-ध्यान 248
गीता पर आस्था 250
गीता का अर्थ 251
गीता कंठ करो 257
नित्य व्यवहार में गीता 258
भगवद्गीता अथवा अनासक्तियोग 262
गीता-जयन्ती 263
गीता और रामायण 264
राष्ट्रीय शालाओं में गीता 266
अहिंसा परमोधर्म: 267
गीता जी 270
अंतिम पृष्ठ 274

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