गीता माता -महात्मा गांधी
गीता-बोध
चौदहवां अध्याय
भगवान उत्तर देते हैं - जो मनुष्य पर जो आ पड़े, फिर भले ही प्रकाश हो या प्रवृत्ति हो, या मोह हो, ज्ञान हो, गड़बड़ हो या अज्ञान, उसका अतिशय दु:ख या सुख न माने या इच्छा न करे; जो गुणों के बार में तटस्थ रहकर विचलित नहीं होता, गुण अपने गुणानुसार बरतते हैं, यह समझकर जो स्थिर रहता है; जो सुख-दु:ख को सम मानता है; जिसे लोहा, पत्थर को सोना समान है; जिसे प्रिय-अप्रिय की बात नहीं है; जिस पर अपनी स्तुति या निंदा कोई प्रभाव नहीं डाल सकती, जिसे मान-अपमान समान है; जो शत्रु-मित्र के प्रति समभाव रखता है; जिसने सब आरंभों का त्याग किया है, वह गुणातीत कहलाता है। मेरे बताये इन लक्षणों से भड़कने की जरूरत नहीं है, न आलसी होकर सिर पर हाथ रखकर बैठ जाने की। मैंने तो सिद्ध की दशा बतलाई है। उसे पहुँचने का मार्ग यह है - व्यभिचार रहित भक्तियोग के द्वारा मेरी सेवा कर।[1] तुझे बताया है कि कर्म बिना, प्रवृत्ति बिना कोई सांस तक नहीं ले सकता, अत: कर्म तो देह मात्र को लगे हुए हैं। जो गुणों को पार कर जाना चाहता है, वह साधक सब कर्म मुझे अर्पण करे और फल की इच्छा तक भी न करे। ऐसा करने में उसके कर्म उसे विघ्न रूप नहीं होंगे; क्योंकि ब्रह्म मैं हूं, मोक्ष मैं हूं, सनतान धर्म मैं हूं, अनंत सुख मैं हूं, जो कहो, वह मैं हूँ। मनुष्य शून्यवत, हो जाय तो मुझे ही सर्वत्र देखे, इसे गुणातीत कहेंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तीसरे अध्याय से लगाकर
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