गीता माता -महात्मा गांधी
14 : गीता जी
यह कथन पूर्णतया सत्य है। यहाँ उपवास को व्यापक अर्थ में लेना चाहिए। शरीर के उपवास के साथ-साथ सभी इंद्रियों का उपवास होना आवश्यक है, और गीता में वर्णित ‘अल्पाहार’ भी शरीर का उपवास है। गीता भोजन-निग्रह का आदेश नहीं देती, बल्कि अल्पाहार के लिए कहती है। अल्पाहार सदा चलने वाला उपवास है। अल्पता का अर्थ है कि केवल उतना ही भोजन किया जाय, जितना शरीर को उस सेवा के लिए कायम रखने को पर्याप्त हो, जिसके करने के लिए उसका निर्माण हुआ है। इसकी कसौटी पुन: इस कथन में मिलती है कि जिस प्रकार स्वाद के लिए नहीं, बल्कि शरीर की निरोगता के लिए नपी-तुली मात्रा में और निश्चित समय पर औषधि का सेवन किया जाता है, उसी प्रकार आहार भी किया जाय। ‘नपी-तुली मात्रा’ में ‘अल्पता’ का भाव शायद अधिक अच्छी तरह से आ जाता है। आरनॉल्ड का रूपान्तर मुझे स्मरण नहीं है। पूरा भोजन लेना ईश्वर और मानव के प्रति पाप है। मानव के प्रति इसलिए कि पूरा भोजन करके हम अपने पड़ोसियों को उनके भाग से वंचित करते हैं। भगवान की अर्थ-व्यवस्था में केवल औषधिक मात्रा में प्रतिदिन सबको भोजन लेने की गुंजाइश है। हम सब-के सब पूरा भोजन लेने वाली जाति के लोग हैं। अन्तःप्रवृत्ति से यह जान लेना कि औषधिक मात्रा क्या है, भगीरथ काम है; क्योंकि मां-बाप का शिक्षण हमें ऐसा मिलता है कि हम पेटू बन जाते हैं। तब जब हम अभ्यस्त हो जाते हैं, हमें पता चलता है कि भोजन का उपयोग स्वाद के लिए नहीं, बल्कि अपने दास के रूप में अपने शरीर को कायम रखने के लिए होना चाहिए। उस घड़ी से आनंद के लिए भोजन करके पैतृक और स्व-अर्जित स्वभाव के विरुद्ध घमासान शुरू हो जाता है। इसलिए कभी-कभी पूर्ण उपवास और सदैव आंशिक उपवास करने की आवश्यकता होती है। आंशिक उपवास का अर्थ अल्पाहार अथवा गीता के अनुसार नपा- तुला भोजन लेना है। इस प्रकार ‘उपवास के बिना प्रार्थना संभव नहीं’ यह कथन वैज्ञानिक है और इसकी सचाई की परीक्षा प्रयोग और अनुभव के द्वारा की जा सकती है। ‘बापूज़ लैटर्स टू मीरा’ 26 जनवरी, 1933 |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज