गीता माता -महात्मा गांधी
13 : अहिंसा परमोधर्म:
2. अंततोगत्वा वह उन लोगों को कोई लाभ नहीं पंहुचा सकती जिनकी उस प्रेम रुपी परमेश्वर में सजीव श्रद्धा नहीं है। 3. मनुष्य के स्वाभिमान और सम्मान-भावना की वह सबसे बड़ी रक्षक है। हां वह मनुष्य की चल-अचल सम्पत्ति की हमेशा रक्षा करने का आश्वासन नहीं देती, हालांकि अगर मनुष्य उसका अभ्यास कर ले तो शस्त्रधारियों की सेनाओं की अपेक्षा वह इसकी अधिक अच्छी तरह रक्षा कर सकती है। यह तो स्पष्ट है कि अन्याय से अर्जित सम्पत्ति तथा दुराचार की रक्षा में वह जरा भी सहायक नहीं हो सकती। 4. जो व्यक्ति और राष्ट्र अंहिसा का अवलंबन करना चाहें उन्हें आत्म-सम्मान को छोड़कर अपना सर्वस्व[1] गंवाने के लिए तैयार रहना चाहिए। इसलिए वह दूसरे के मुल्कों को हड़पने अर्थात् आधुनिक साम्राज्यवाद से जो कि अपनी रक्षा के लिए पशुबल पर निर्भर रहता है बिलकुल मेल नहीं खा सकता। 5. अंहिसा एक ऐसी शक्ति है जिसका सहारा बालक, युवा, वृद्ध, स्त्री-पुरुष सब ले सकते हैं बशर्ते कि उनकी उस करुणामय तथा मनुष्य-मात्र में सजीव श्रद्धा हो। जब हम अंहिसा को अपना जीवन-सिद्धांत बना लें तो वह हमारे संपूर्ण जीवन में व्याप्त होना चाहिए यों कभी-कभी उसे पकड़ने और छोड़ने से लाभ नहीं हो सकता। 6. यह समझना एक जबर्दस्त भूल है कि अहिंसा केवल व्यक्तियों के लिए ही लाभदायक है जन-समूह के लिए नहीं। जितना वह व्याक्ति के लिए धर्म है उतना ही वह राष्ट्रों के लिए भी धर्म है। 5 सितंबर, 1936 |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ राष्ट्रों को तो एक-एक आदमी
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