गीता माता -महात्मा गांधी
6 : गीता का अर्थ
इस परिचय के बाद तो मैंने बहुत-से अनुवाद पढ़े, बहुत सी टीकाएं पढ़ी, बहुत-से तर्क किये और सुने, लेकिन उसे पढ़ने पर जो छाप मुझ पर पड़ी थी, वह दूर नहीं हुई। ये श्लोक गीता जी के अर्थ को समझने की कुंजी हैं। उससे विरोधी अर्थ वाले वचन यदि मिलें तो उन्हें त्याग करने की भी सलाह मैं दूंगा। नम्र और विनयी मनुष्य को त्याग करने की भी जरूरत नहीं है। वह तो सिर्फ यों ही कह दे कि दूसरे श्लोकों का आज इसके साथ मेल नहीं मिलता है तो यह मेरी बुद्धि का ही दोष है। समय बीतने पर इनका और इन उन्नीस श्लोकों में कहे गये सिद्धांतों का भी मेल बैठ जायगा। अपने मन से और दूसरों के यह कहकर वह शांत हो जायगा।' शास्त्र का अर्थ करने में संस्कार और अनुभव की आवश्यकता है। शूद्र को वेद का अभ्यास नहीं होता‘, यह वाक्य सर्वथा गलत नहीं है। शूद्र अर्थात असंस्कारी, मूर्ख, अज्ञान। वह वेदादि का अभ्यास करके उनका अनर्थ करेगा। बड़ी उम्र के भी सब लोग बीजगणित के कठिन प्रश्न अपने-आप समझने के अधिकारी नहीं हैं। उनको समझने के पहले उन्हें कुछ प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करनी पड़ती है। व्यभिचारी के मुख से ‘अहं ब्रह्मास्मि‘ क्या शोभा देगा? उसका वह क्या अर्थ या अनर्थ करेगा? अर्थात शास्त्र का अर्थ करने वाला यमादि का पालन करने वाला होना चाहिए। यमादि का शुप्क पालन जैसा कठिन है, वैसा ही निरर्थक भी है। शास्त्रों ने गुरु का होना आवश्यक माना है; लेकिन इस जमाने में गुरुओं का तो क़रीब-क़रीब लोप-सा हो गया है। ज्ञानी लोग इसीलिए भक्ति -प्रधान प्रकृति ग्रंथों का पठन-पाठन करने की शिक्षा देते है; किन्तु जिनमें भक्ति नहीं, श्रद्धा नहीं, वे शास्त्र का अर्थ करने के अधिकारी नहीं होते। विद्वान लोग विद्वत्तापूर्ण अर्थ उसमें से भले ही निकालें; लेकिन वह शास्त्रार्थ नहीं। शास्त्रार्थ तो अनुभवी ही कर सकता है। परंतु प्रकृति मनुष्यों के लिए भी कुछ सिद्धांत तो है ही। शास्त्रों के वे अर्थ, जो सत्य के विरोधी हैं, यही नहीं हो सकते। जिसे सत्य के सत्य होने के बारे में ही शंका है, उसके लिए शास्त्र हैं ही नहीं, अथवा यों कहिए कि उसके लिए सब शास्त्र अशास्त्र है। उसको कोई नहीं पहुँच सकता। जिसे शास्त्र में से अहिंसा प्राप्त नहीं हुई है, उसके लिए भय है, लेकिन यह बात नहीं कि उसका उद्धार न हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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