गीता-प्रवेशिका
ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।29॥
अर्जुन! ईश्वर सब प्राणियों के हृदय में वास करता है
और अपनी माया के बल से उन्हें चाक पर चढ़े हुए घड़े की
तरह घुमाता है।
तमेव शरणं गच्छ
सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्ति
स्थान प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।30॥
हे भारत! सर्वभाव से तू उसकी शरण ले। उसकी कृपा
से परम शांतिमय अमर पद को पावेगा।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपावेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:।।31॥
सब धर्मों का त्याग करके एक मेरी ही शरण ले! मैं तुझे
सब पापों से मुक्त करूंगा। शोक मत कर।
संजय उवाच
यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर:।
तत्र श्रीविजयो भतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।32॥
संजय ने कहा -
जहाँ योगेश्वर कृष्ण हैं, जहाँ धनुर्धारी पार्थ है, वहाँ श्री
है, विजय है, वैभव है और अविचल नीति है, ऐसा मेरा अभिप्राय
है।
टिप्पणी - योगेश्वर कृष्ण से तात्पर्य है अनुभव सिद्ध शुद्धज्ञान और धुनर्धारी अर्जुन से अभिप्राय है तदनुसारिणी किया, इन
दोनों का संगम जहाँ हो, वहाँ संजय ने जो कहा है उसके सिवा
दूसरा क्या परिणाम हो सकता है?
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