गीता-प्रवेशिका
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन:।।13॥
पत्र, फूल, फल या जल जो मुझे भक्तिपूर्वक अर्पित करता
है वह प्रयत्नशील मनुष्य द्वारा भक्तिपूर्वक अर्पित किया हुआ मैं
सेवन करता हूँ।
टिप्पणी - तात्पर्य यह कि ईश्वर प्रीत्यार्थ जो कुछ सेवा भाव
से दिया जाता है, उसका स्वीकार उस प्राणी में रहने वाले अंतर्यामी रूप
से भगवान ही करते हैं।
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।।14॥
इसलिए हे कौंतेय! तू जो करे, जो खाये, जो हवन में
होम करे, जो दान में दे, जो तप करे, वह सब मुझे अर्पण करके
करना।
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय:।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।।15॥
सब प्राणियों में मैं समभाव से रहता हूँ। मुझे कोई अप्रिय
या प्रिय नहीं है। जो मुझे भक्तिपूर्वक भजते हैं वे मुझमें हैं और
मैं भी उनमें हूँ।
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यमाक्।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:।।16।।
भारी दुराचारी भी यदि अनन्य भाव से मुझे भजें तो उसे
साधु हुआ ही मानना चाहिए, क्योंकि अब उसका अच्छा संकल्प
है।
टिप्पणी - क्योंकि अनन्य भक्ति दुराचार को शांत कर देती है।
|