गीता माता -महात्मा गांधी
गीता-प्रवेशिका
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्व च मयि पश्यति। जो मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, वह मेरी दृष्टि से ओझल नहीं होता और मैं उसकी दृष्टि से ओझल नहीं होता। सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित:। मुझमें लीन हुआ जो योगी भूतमात्र में रहने वाले मुझको भजता रहता है, वह चाहे जिस तरह बर्तता हुआ भी मुझमें ही बर्तता है। टिप्पणी - ʻआप̕ जब तक है तब तक तो परमात्मा ʻपर̕ है, ʻआप̕ मिट जाने पर शून्य होने पर ही एक परमात्मा को सर्वत्र देखता है।[1] आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन। हे अर्जुन! जो मनुष्य अपने-जैसा सबको देखता है और सुख हो या दु:ख दोनों को समान समझता है, वह योगी श्रेष्ठ गिना जाता है। योगिनामपि सर्वेषां मद्गगतेनान्तरात्मना। सारे योगियों में भी उसे मैं सर्वश्रेष्ठ योगी मानता हूँ , जो मुझमें मन पिरोकर मुझे श्रद्धापूर्वक भजता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अध्याय 13-23 की टिप्पणी देखिए
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