गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
अठारहवां अध्याय
संन्यासयोग
य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति। परंतु यह परम गुह्यज्ञान जो मेरे भक्तों को देगा वह मेरी परम भक्ति के कारण निसंस्देह मुझे ही पावेगा। न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तम:। उसकी अपेक्षा मनुष्यों में मेरा कोई अधिक प्रिय सेवक नहीं है और पृथ्वी में उसकी अपेक्षा मुझे कोई अधिक प्रिय होने वाला भी नहीं है। हमारे इस धर्म संवाद का जो अभ्यास करेगा, वह मुझे यज्ञ द्वारा भजेगा, ऐसा मेरा मत है। श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणृयादपि यो नर:। और जो मनुष्य द्वेष-रहित होकर श्रद्धापूर्वक केवल सुनेगा वह भी मुक्त होकर पुण्यवान जहाँ बसते हैं उस शुभ लोक को पावेगा। टिप्पणी - इसमें तात्पर्य यह है कि जिसने इस ज्ञान का अनुभव किया है वही इसे दूसरे को दे सकता है। शुद्ध उच्चारण करके अर्थसहित सुना देने वालों के विषय में ये दोनों श्लोक नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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