गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
अठारहवां अध्याय
संन्यासयोग
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्वयपाश्रय:। मेरा आश्रय ग्रहण करने वाला सदा सब कर्म करता हुआ भी मेरी कृपा से शाश्वत, अव्ययपद को पाता है।
चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्पर:। मन से सब कर्मों को मुझमें अर्पण करके मुझमें परायण होकर, विवेक-बुद्धि का आश्रय लेकर निरंतर मुझमें चित्त लगा। मच्चित: सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि। मुझमें चित्त लगाने पर कठिनाइयों के समस्त पहाड़ को मेरी कृपा से पार कर जाएगा, किंतु यदि अहंकार के वश होकर मेरी न सुनेगा तो नाश हो जायगा। यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे। अहंकार के वश होकर ʻमैं युद्ध नहीं करूंगा̕ ऐसा तू मानता हो तो यह तेरा निश्चय मिथ्या है। तेरा स्वभाव ही तुझे उस तरफ से बलात्कार से घसीट ले जायगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज