गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
अठारहवां अध्याय
संन्यासयोग
सिद्धिं प्राप्तों यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे। हे कौंतेय! सिद्धि प्राप्त होने पर मनुष्य ब्रह्म को किस प्रकार पाता है, सो मुझसे संक्षेप में सुन। ज्ञान की पराकाष्ठा वही है। बुद्धय विशुद्धया युक्तो जिसकी बुद्धि शुद्ध हो गई है, ऐसा योगी दृढ़तापूर्वक अपने को वश में करके, शब्दादि विषयों का त्यागकर, राग-द्वेष को जीतकर, एकांत सेवन करके, अल्पाहार करके, वाचा, काया और मन को अंकुश में रखकर, ध्यान-योग में नित्यपरायण रहकर, वैराग्य का आश्रय लेकर, अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध और परिग्रह को त्यागकर, ममता रहित और शांत होकर ब्रह्मभाव को पाने योग्य बनता है। ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मान शोचति न काङ्क्षति। ब्रह्मभाव को प्राप्त प्रसन्नचित्त मनुष्य न तो शोक करता है, न कुछ चाहता है। भूतमात्र में समभाव रखकर मेरी परमभक्ति को पाता है। भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वत:। मैं कैसा और कौन हूँ इसे भक्ति द्वारा वह यथार्थ जानता है और इस प्रकार मुझे यथार्थ जानकर मुझमें प्रवेश करता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज