गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
अठारहवां अध्याय
संन्यासयोग
धृत्या यया धारयते मन:प्राणेन्द्रियक्रिया:। हे पार्थ! जिस एकनिष्ठ धृति से मनुष्य मन, प्राण और इंद्रियों की क्रिया को साम्य बुद्धि से धारण करता है, वह धृति सात्त्विक है। यया तु धर्मकामार्थान्धृत्या धारयतेऽर्जुन। हे पार्थ! जिस धृति से मनुष्य फलाकांक्षी होकर धर्म, काम और अर्थ को आसक्तिपूर्वक धारण करता है वह धृति राजसी है। यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च। जिस धृति से दुर्बुद्धि मनुष्य निद्रा, शोक , निराशा और मद को छोड़ नहीं सकता, हे पार्थ! वह तामसी धृति है। सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रृणु मे भरतर्षभ। हे भरतवर्षभ! अब तीन प्रकार के सुख का वर्णन मुझसे सुन। जिसके अभ्यास से मनुष्य प्रसन्न रहता है, जिससे दु:ख का अंत होता है, जो आरंभ में विष समान लगता है, परिणाम में अमृत जैसा होता है, जो आत्म-ज्ञान की प्रसन्नता में से उत्पन्न होता है, वह सात्त्विक सुख कहलाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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