गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
अठारहवां अध्याय
संन्यासयोग
बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं श्रृणु। हे धनंजय! बुद्धि और धृति के गुण के अनुसार पूरे और पृथक- पृथक तीन प्रकार कहता हूं, उन्हें सुन- प्रवृतिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये। प्रवृत्ति, निवृत्त कार्य, अकार्य, भय, अभय, बंधन, मोक्ष का भेद जो बुद्धि [1] जानती है वह सात्त्विक बुद्धि है। यया धर्ममधर्म च कार्यं चाकार्यमेव च। जो बुद्धि धर्म- अधर्म और कार्य- अकार्य का विवेक गलत ढ़ंग से करती है वह बुद्धि, हे पार्थ! [2] है। अधर्म धर्ममिति या मन्यते तमसावृता। हे पार्थ! जो बुद्धि अंधकार से घिरी हुई है, अधर्म को धर्म मानती है और सब बातें उलटी ही देखती है वह [3] है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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