गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
अठारहवां अध्याय
संन्यासयोग
कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन। हे अर्जुन! ‘करना चाहिए’ ऐसा समझकर जो नियत कर्म संग और फल से त्यागकर किया जाता है वह त्याग ही सात्त्विक माना गया है। न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते। संशयरहित हुआ, शुद्ध भावना वाला, त्यागी और बुद्धिमान असुविधाजनक कर्म का द्वेष नहीं करता, सुविधा वाले में लीन नहीं होता। न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषत:। कर्म का सर्वथा त्याग देहधारी के लिए संभव नहीं हैं; परंतु जो कर्म-फल का त्याग करता है वह त्यागी कहलाता है। अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मण: फलम्। त्याग न करने वाले के कर्म का फल कालांतर में तीन प्रकार का होता है। अशुभ, शुभ और शुभाशुभ। जो त्यागी[1] है उसे कभी नहीं होता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ संन्यासी
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