गीता माता -महात्मा गांधी पृ. 19

गीता माता -महात्मा गांधी

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गीता-बोध
पांचवां अध्‍याय


इसलिए मैंने कर्म-योग को विशेष कहा है। करोड़ों निष्‍काम कर्म में से ही संन्‍यास का फल प्राप्‍त करते हैं। वे संन्‍यासी होने जायें तो मिथ्‍याचारी हो जाने की पूरी संभावना है, और कर्म से तो गये है, मतलब सब खोया, पर जो मनुष्‍य अनासक्ति-सहित कर्म करता हुआ शुद्धता प्राप्‍त करता है, जिसने अपने मन को जीता है, जिसने अपनी इंद्रियों को वश में रक्‍खा है, जिसने सब जीवों के साथ अपनी एकता साधी है और सबको अपने समान ही मानता है, वह कर्म करते हुए भी उससे अलग रहता है, अर्थात बंधन में नहीं पड़ता। ऐसे मनुष्‍य के बोलने-चालने आदि की क्रियाएं करते हुए भी ऐसा लगता है कि इन क्रियाओं को इंद्रियां अपने धर्मानुसार कर रही हैं। स्‍वयं वह कुछ नहीं करता। शरीर से आरोग्‍यवान मनुष्‍य की क्रियाएं स्‍वाभाविक होती हैं। उसके जठर आदि अपने-आप काम करते हैं, उनकी ओर उसे खयाल नहीं दौड़ाना पड़ता, वैसे ही जिसकी आत्‍मा आरोग्‍यवान है, उसके लिए कहा जा सकता है कि शरीर में रहते हुए भी स्‍वयं अलिप्‍त है, कुछ नहीं करता। इसलिए मनुष्‍य को चाहिए कि सब कर्म ब्रह्मार्पण करे, ब्रह्म के ही निमित्त करे। तब वह करते हुए भी पाप-पुण्‍य का पुंज नहीं रचता। पानी में कमल की भाँति कोरा-का-कोरा ही रहेगा।

इसलिए जिसने अनासक्ति का अभ्‍यास कर लिया है, वह योगी काया से, मन से, बुद्धि से कार्य करते हुए भी संग रहित होकर, अहंकार तजकर, बरतता है, जिससे शुद्ध हो जाता है और शांति पाता है। दूसरा रोगी, जो परिणाम में फंसा हुआ है, कैदी की भाँति अपनी कामनाओं में बंधा रहता है। इस नौ दरवाजे वाले देहरूपी नगर में सब कर्मों का मन से त्‍याग करके स्‍वयं कुछ न करता-कराता हुआ योगी सुखपूर्वक रहता है। संस्‍कारवान संशुद्ध आत्‍मा न पाप करता है, न पुण्‍य। जिसने कर्म में आसक्ति नहीं रखी, अहंभाव नष्‍ट कर दिया, फल का त्‍याग किया, वह जड़ की भाँति बरतता है, निमित्त मात्र बना रहता है। भला उसे पाप-पुण्‍य कैसे छू सकते हैं? इसके विपरीत जो अज्ञान में फंसा है, वह हिसाब लगाता है, इतना पुण्‍य किया, इतना पाप किया और इससे वह नित्‍य नीचे को गिरता जाता है और अंत में उसके पल्ले पाप ही रह जाता है।

ज्ञान से अपने अज्ञान का नित्‍य नाश करते जाने वाले के कर्म में नित्‍य निर्मलता बढ़ती जाती है, संसार की दृष्टि में उसके कर्मों में पूर्णता और पुण्‍यता होती है। उसके सब कर्म स्‍वाभाविक जान पड़ते हैं। वह समदर्शी होता है। उसकी नजरों में विद्या और विनयवाला ब्रह्मज्ञाता ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता, विवेकहीन पशु से भी गया बीता मनुष्‍य, सब समान हैं। मतलब, कि सबकी वह समान भाव से सेवा करेगा - यह नहीं कि किसी को बड़ा मानकर उसका मान करेगा और दूसरे को तुच्‍छ समझकर उसका तिरस्‍कार करेगा। अनासक्‍त

मनुष्‍य अपने को सबका देनदार मानेगा, सबको उनका लहना चुकावेगा और पूरा न्‍याय करेगा। उसने जीते-जी जगत को जीत लिया है, वह ब्रह्ममय है। अपना प्रिय करने वाले पर वह रीझता नहीं, गाली देने वाले पर खीझता नहीं। आसक्तिवान सुख को बाहर ढूंढ़ता है, अनासक्‍त निरंतर भीतर से शांति पाता है, क्‍योंकि उसने बाहर से जीव को समेट लिया है। इंद्रिय- जन्‍य सारे भोग दु:ख के कारण हैं। मनुष्‍य को काम-क्रोध से उत्‍पन्‍न उपद्रव सहन करने चाहिए। अनासक्‍त योगी सब प्राणियों के हित में लगा रहता है। वह शंकाओं से पीड़ित नहीं होता। ऐसा योगी बाहरी जगत से निराला रहता है, प्राणायामादि के प्रयोगों से अंतर्मुखता का यत्‍न करता रहता है और इच्‍छा, भय, क्रोध आदि से पृथक रहता है। वह मुझे ही सबका महेश्‍वर, मित्ररूप, यज्ञादि के भोक्‍ता की भाँति जानता है और शांति प्राप्‍त करता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता माता
अध्याय पृष्ठ संख्या
गीता-बोध
पहला अध्याय 1
दूसरा अध्‍याय 3
तीसरा अध्‍याय 6
चौथा अध्‍याय 10
पांचवां अध्‍याय 18
छठा अध्‍याय 20
सातवां अध्‍याय 22
आठवां अध्‍याय 24
नवां अध्‍याय 26
दसवां अध्‍याय 29
ग्‍यारहवां अध्‍याय 30
बारहवां अध्‍याय 32
तेरहवां अध्‍याय 34
चौदहवां अध्‍याय 36
पन्‍द्रहवां अध्‍याय 38
सोलहवां अध्‍याय 40
सत्रहवां अध्‍याय 41
अठारहवां अध्‍याय 42
अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना 46
पहला अध्याय 53
दूसरा अध्याय 64
तीसरा अध्याय 82
चौथा अध्याय 93
पांचवां अध्याय 104
छठा अध्याय 112
सातवां अध्याय 123
आठवां अध्याय 131
नवां अध्याय 138
दसवां अध्याय 147
ग्‍यारहवां अध्याय 157
बारहवां अध्याय 169
तेरहवां अध्याय 174
चौहदवां अध्याय 182
पंद्रहवां अध्याय 189
सोलहवां अध्याय 194
सत्रहवां अध्याय 200
अठारहवां अध्याय 207
गीता-प्रवेशिका 226
गीता-पदार्थ-कोश 238
गीता की महिमा
गीता-माता 243
गीता से प्रथम परिचय 245
गीता का अध्ययन 246
गीता-ध्यान 248
गीता पर आस्था 250
गीता का अर्थ 251
गीता कंठ करो 257
नित्य व्यवहार में गीता 258
भगवद्गीता अथवा अनासक्तियोग 262
गीता-जयन्ती 263
गीता और रामायण 264
राष्ट्रीय शालाओं में गीता 266
अहिंसा परमोधर्म: 267
गीता जी 270
अंतिम पृष्ठ 274

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