गीता माता -महात्मा गांधी
गीता-बोध
पांचवां अध्याय
इसलिए जिसने अनासक्ति का अभ्यास कर लिया है, वह योगी काया से, मन से, बुद्धि से कार्य करते हुए भी संग रहित होकर, अहंकार तजकर, बरतता है, जिससे शुद्ध हो जाता है और शांति पाता है। दूसरा रोगी, जो परिणाम में फंसा हुआ है, कैदी की भाँति अपनी कामनाओं में बंधा रहता है। इस नौ दरवाजे वाले देहरूपी नगर में सब कर्मों का मन से त्याग करके स्वयं कुछ न करता-कराता हुआ योगी सुखपूर्वक रहता है। संस्कारवान संशुद्ध आत्मा न पाप करता है, न पुण्य। जिसने कर्म में आसक्ति नहीं रखी, अहंभाव नष्ट कर दिया, फल का त्याग किया, वह जड़ की भाँति बरतता है, निमित्त मात्र बना रहता है। भला उसे पाप-पुण्य कैसे छू सकते हैं? इसके विपरीत जो अज्ञान में फंसा है, वह हिसाब लगाता है, इतना पुण्य किया, इतना पाप किया और इससे वह नित्य नीचे को गिरता जाता है और अंत में उसके पल्ले पाप ही रह जाता है। ज्ञान से अपने अज्ञान का नित्य नाश करते जाने वाले के कर्म में नित्य निर्मलता बढ़ती जाती है, संसार की दृष्टि में उसके कर्मों में पूर्णता और पुण्यता होती है। उसके सब कर्म स्वाभाविक जान पड़ते हैं। वह समदर्शी होता है। उसकी नजरों में विद्या और विनयवाला ब्रह्मज्ञाता ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता, विवेकहीन पशु से भी गया बीता मनुष्य, सब समान हैं। मतलब, कि सबकी वह समान भाव से सेवा करेगा - यह नहीं कि किसी को बड़ा मानकर उसका मान करेगा और दूसरे को तुच्छ समझकर उसका तिरस्कार करेगा। अनासक्त मनुष्य अपने को सबका देनदार मानेगा, सबको उनका लहना चुकावेगा और पूरा न्याय करेगा। उसने जीते-जी जगत को जीत लिया है, वह ब्रह्ममय है। अपना प्रिय करने वाले पर वह रीझता नहीं, गाली देने वाले पर खीझता नहीं। आसक्तिवान सुख को बाहर ढूंढ़ता है, अनासक्त निरंतर भीतर से शांति पाता है, क्योंकि उसने बाहर से जीव को समेट लिया है। इंद्रिय- जन्य सारे भोग दु:ख के कारण हैं। मनुष्य को काम-क्रोध से उत्पन्न उपद्रव सहन करने चाहिए। अनासक्त योगी सब प्राणियों के हित में लगा रहता है। वह शंकाओं से पीड़ित नहीं होता। ऐसा योगी बाहरी जगत से निराला रहता है, प्राणायामादि के प्रयोगों से अंतर्मुखता का यत्न करता रहता है और इच्छा, भय, क्रोध आदि से पृथक रहता है। वह मुझे ही सबका महेश्वर, मित्ररूप, यज्ञादि के भोक्ता की भाँति जानता है और शांति प्राप्त करता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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