गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
तेरहवां अध्याय
क्षेत्रक्षेत्रविभागयोग
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति। जब वह जीवों का अस्तित्व पृथक होने पर भी एक में ही स्थित देखता है और इसलिए सारे विस्तार को उसी से उत्पन्न हुआ समझता है तब वह ब्रह्म को पाता है। टिप्पणी- अनुभव से सब कुछ ब्रह्म में ही देखना ब्रह्म को प्राप्त करना है। उस समय जीव शिव से भिन्न नहीं रह जाता। अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्यय:। हे कौंतेय! यह अविनाशी परमात्मा अनादि और निर्गुण होने के कारण शरीर में रहता हुआ भी न कुछ करता और न किसी से लिप्त होता है। यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते। जिस प्रकार सूक्ष्म होने के कारण सर्वव्यापी आकाश लिप्त नहीं होता, वैसे सब देह में रहने वाला आत्मा लिप्त नहीं होता। जैसे एक ही सूर्य इस समूचे जगत को प्रकाश देता है, वैसे हे भारत! क्षेत्री समूचे क्षेत्र को प्रकाशित करता है। जो ज्ञान चक्षु द्वारा क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का भेद और प्रकृति के बंधन से प्राणियों की मुक्ति कैसे होती है यह जानता है वह ब्रह्म को पाता है। ॐ तत्सत् इति श्रीमद्भगवद्गीता रूपी उपनिष्द् अर्थात ब्रह्म विद्यान्तर्गत योगशास्त्र के श्रीकृष्णार्जुनसंवाद का ʻक्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग̕ नामक तेरहवां अध्याय। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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