गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
तेरहवां अध्याय
क्षेत्रक्षेत्रविभागयोग
यावत्संजायते किंचित्सत्वं स्थावर जंगमम्। जो कुछ चर या अचर वस्तु उत्पन्न होती है वह, हे भरतर्षभ! क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के अर्थात प्रकृति और पुरुष के संयोग से उत्पन्न हुई जान। समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्। समस्त नाशवान प्राणियों में अविनाशी परमेश्वर को समभाव से मौजूद जो जानता है वही उसका जानने वाला है। समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्। जो मनुष्य ईश्वर को सर्वत्र समभाव से अवस्थित देखता है वह अपने-आपका घात नहीं करता और इससे परमगति को पाता है। टिप्पणी- समभाव से अवस्थित ईश्वर को देखने वाला आप उसमें विलीन हो जाता है और अन्य कुछ नहीं देखता। इसलिए विकारवश न होकर मोक्ष पाता है; अपना शत्रु नहीं बनता। प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वश:। सर्वत्र प्रकृति ही कर्म करती है ऐसा जो समझता है और इसीलिए आत्मा को अकर्तारूप जानता है वही जानता है। टिप्पणी- कैसे, जैसे कि सोते हुए मनुष्य का आत्मा निद्रा का कर्ता नहीं है, किंतु प्रकृति निद्रा का कर्म करती है। निर्विकार मनुष्य के नेत्र कोई गंदगी नहीं देखते। प्रकृति व्यभिचारणी नहीं है। अभिमानी पुरुष जब उसका स्वामी बनता है तब उस मिलाप में से विषय-विकार उत्पन्न होते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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