गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
तेरहवां अध्याय
क्षेत्रक्षेत्रविभागयोग
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवजितम्। सब इंद्रियों के गुणों का आभास उसमें मिलता है तो भी वह स्वरूप इंद्रिय-रहित और सबसे अलिप्त है तथापि सबको धारण करने वाला है। वह गुण-रहित होने पर भी गुणों का भोक्ता है। बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च। वह भूतों के बाहर है और अंदर भी है। वह गतिमान है और स्थिर भी है। सूक्ष्म होने के कारण वह अविज्ञेय है। वह दूर है और समीप भी है। टिप्पणी- जो उसे पहचानता है वह उसके अंदर है। गति और स्थिरता, शांति और अशांति हम लोग अनुभव करते हैं। और सब भाव उसी में से उत्पन्न होते हैं, इसलिए वह गतिमान और स्थिर है। भूतों में वह अविभक्त है और विभक्त-सरीखा भी विद्यमान है। यह जानने योग्य[1] प्राणियों का पालक, नाशक और कर्ता है। ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमस: परमुच्यते। ज्योतियां की भी वह ज्योति है, अंधकार से वह परे कहा जाता है। ज्ञान वही है, जानने योग्य वही है और ज्ञान से जो प्राप्त होता है वह भी वही है। वह सबके हृदय में मौजूद है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ब्रह्म
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