गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
ग्यारहवां अध्याय
विश्वरूपदर्शनयोग
नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया। जो मेरे दर्शन तूने किये हैं वह दर्शन न वेद से, न तप से, न दान से अथवा न यज्ञ से हो सकते हैं। भवक्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन। परंतु हे अर्जुन! हे परंतप! मेरे संबंध में ऐसा ज्ञान, ऐसे मेरे दर्शन और मुझमें वास्तविक प्रवेश केवल अनन्य भक्ति से ही संभव है। मत्कर्षकृन्मत्परमो मद्भक्त: सङ्गवर्जित:। हे पांडव! जो सब कर्म मुझे समर्पण करता है, मुझे में परायण रहता है, मेरा भक्त बनता है, आसक्ति का त्याग करता है और प्राणीमात्र में द्वेष-रहित होकर रहता है, वह मुझे पाता है। ॐ तत्सत् इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् अर्थात ब्रह्म विद्यान्तर्गत योग शास्त्र के श्री कृष्णार्जुन-संवाद का ʻविश्वरूपदर्शन-योग̕ नामक ग्यारहवां अध्याय। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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