गीता माता -महात्मा गांधी
गीता-बोध
चौथा अध्याय
यज्ञ-3 13-11-30 चर्खे और फ्रेंच के विषय में तुमने जो लिखा है, उसमें भी सिद्वान्त-दृष्टि से त्रुटि पाता हूँ। चर्खे को सर्वार्पण करने पर उस समय को दूसरे काम में नहीं लगाया जा सकता। कोई बात करने आ जाय तो विवेक के खयाल से कर सकते हैं, पर बातों के बजाय कुछ सीखा ही जाय तो उसमें क्या बुराई है, यह न्याय यहाँ नहीं लग सकता। बातों में से तो जब चाहे छुट्टी पाई जा सकती है। बात करने वाला भी बहुत देर तक बैठकर बातें नहीं करेगा। पर शिक्षक बन जाने पर तो वह पूरा समय देने को मजबूर हो जाता है। यह सब के लिए है जबकि चर्खे को यज्ञ रूप में चलाते हों, अपने विषय में मैं इस सत्य का प्रत्यक्ष अनुभव करता हूँ। चर्खा चलाते समय जब अन्य विचारों में पड़ता हूँ तब गति पर, नंबर पर, समानता पर, उसका असर पड़ता है। कल्पना करो कि रोम्या रोलां या बिथोवन पियानो पर बैठे हैं। उस पर वे ऐसे तन्मय हो जाते हैं कि बात नहीं कर सकते, न मन में अन्य विचार कर सकते हैं, कला और कलाकार पृथक नहीं होते। यदि यह पियानो के लिए सत्य हो तोफिर चर्खा यज्ञ के लिए कितना अधिक सत्य होना चाहिए? यह विचार जाने दो कि यह आचरण आज ही संभव नहीं है। अपने विचार-क्षेत्र को बावन तोला पाव रत्ती शुद्ध रख सकें तो तदनुसार आचरण किसी दिन हो ही जायगा। यह न समझो कि इस में गुजरे हुओं की आलोचना है। मैं खुद बहुत अधूरा हूं, मुझे आलोचना करने का हक भी कहाँ है? जितना जानता हूं, उस पर मै खुद कहाँ पूरी तरह चलता हूं? चलता होता तो कब का चर्खासात लाख गांवों में गूंज जाता। आज भी जो जानता हूं, उसके अनुसार सौ फीसदी चल सकूं तो मेरे यहाँ बैठे भी चर्खा हवा की तरह फैले। पर यदि मालवीय जी भागवत पुराण की चर्चा से थकें तो मैं चर्खा-संगीत की बातों से थकूं। चर्खा-पुराण तो कैसे कहूं? पुराण तो भविष्य की पीढ़ी रचेगी बशर्ते कि हम कुछ रचने लायक कर जायंगे। आज तो हम इसका टूटा-फूटा संगीत रच रहे हैं। कैसा सुर निकलता है, यह हमारी तपश्चर्या और हमारे समर्पण पर निर्भर रहेगा। ...... मुझे आदर्श तो यह लगता है कि यज्ञ के समय मौन हो।उस समय जो विचार हो, वह चर्खे, या कहो खादी संबंधी अथवा रामनाम का हो। रामनाम को विस्तृत अर्थ में लेना चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज