गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
दसवां अध्याय
विभूति योग
स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम। हे पुरुषोत्तम! हे जीवों के पिता! हे जीवेश्वर! हे देवों के देव! हे जगत के स्वामी ! आप स्वयं ही अपने द्वारा अपने को जानते हैं। वक्तुमर्हस्यशेषेण जिन विभूतियों के द्वारा इन लोकों में आप व्याप रहे हैं, अपनी वह दिव्य विभूतियां पूरी-पूरी मुझसे आपको कहनी चाहिए। कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्। हे योगिन! आपका नित्य चिंतन करते-करते आपको मैं कैसे पहचान सकता हूं? हे भगवान! किस-किस रूप में आपका चिंतन करना चाहिए ? विस्तरेणात्मनो योगं विंभूति च जनार्दन। हे जनार्दन! अपनी शक्ति और अपनी विभूति का वर्णन मुझसे फिर विस्तारपूर्वक कीजिए। आपकी अमृतमय वाणी सुनते-सुनते तृप्ति ही नहीं होती। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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