गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
नवां अध्याय
राज विद्याराज गुह्य योग
यान्ति देवव्रता देवान् देवताओं का पूजन करने वाले देवलोक को पाते हैं, पितरों का पूजन करने वाले पितृलोक को पाते हैं, भूत-प्रेतादि को पूजने- वाले उन लोकों को पाते हैं और मुझे भजने वाले मुझे पाते हैं। पत्र, फूल, फल या जल जो मुझे भक्तिपूर्वक अर्पित करता है वह प्रयत्नशील मनुष्य द्वारा भक्तिपूर्वक अर्पित किया हुआ मैं सेवन करता हूँ। टिप्पणी- तात्पर्य यह कि ईश्वर प्रीत्यर्थ जो कुछ सेवाभाव से दिया जाता है, उसका स्वीकार उस प्राणी में रहने वाले अतंर्यामी रूप से भगवान ही ग्रहण करते हैं। इसलिए हे कौंतेय! जो करे, जो खाये, जो हवन में होमे, जो तू दान में दे, जो तप करे, वह सब मुझे अर्पण करके करना।
इससे तू शुभाशुभ फल देने वाले कर्म-बंधन से छूट जाएगा और फलत्याग रूपी समत्व को पाकर, जन्म-मरण से मुक्त होकर मुझे पावेगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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