गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
नवां अध्याय
राज विद्याराज गुह्य योग
ते तं भुक्त्वा सवर्गलोकं विशालं इस विशाल स्वर्गलोक को भोगकर वे पुण्य का क्षय हो जाने पर मृत्युलोक में वापस आते हैं। इस प्रकार तीन वेद के कर्म करने वाले फल की इच्छा रखने वाले जन्म-मरण के चक्कर काटा करते हैं। अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते। जो लोग अनन्य भाव से मेरा चिंतन करते हुए मुझे भजते हैं, उन नित्य मुझमें ही रत रहने वालों के योग-क्षेम का भार मैं उठाता हूँ। टिप्पणी- इस प्रकार योगी को पहचानने के तीन सुंदर लक्षण हैं- समत्व, कर्म-कौशल, अनन्य भक्ति। ये तीनों एक-दूसरे में ओत-प्रोत होने चाहिए। भक्ति के बिना समत्व नहीं मिलता, समत्व के बिना भक्ति नहीं मिलती और कर्म-कौशल के बिना भक्ति तथा समत्व का आभास मात्र होने का भय है। योग अर्थात अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करना और क्षेम अर्थात प्राप्त वस्तु को संभालकर रखना। येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता:। और, हे कौंतेय! जो श्रद्धापूर्वक दूसरे देवता को भजते हैं, वे भी भले ही विधिरहित भजें, मुझे ही भजते हैं। टिप्पणी- विधिरहित अर्थात अज्ञानवश, मुझे एक निरंजन निराकार को न जानकर। अहंहि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च। जो मैं ही सब यज्ञों को भोगने वाला स्वामी हूं, उसे वे सच्चे स्वरूप में नहीं पहचानते, इसलिए वे गिरते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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