गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
सातवां अध्याय
ज्ञानविज्ञान योग
त्रिभिर्गुणमयैभविरैभि: सर्वमिदं जगत्। इन त्रिगुणी भावों से सारा संसार मोहित हो रहा है और इसलिए उसने उच्च और भिन्न ऐसे मुझको, अविनाशी को वह नहीं पहचानता। दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। इस मेरी तीन गुणों वाली दैवी माया का तरना कठिन है; पर जो मेरी ही शरण लेते हैं वे इस माया को तर जाते हैं। न मां दुष्कुतिनो मूढ़ा: प्रपद्यन्ते नराधमा:। दुराचारी, मूढ़, अधम मनुष्य मेरी शरण नहीं आते। वे आसुरी भाव वाले होते हैं और माया द्वारा उनका ज्ञान हरा हुआ होता है। चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन। हे अर्जुन! चार प्रकार के सदाचारी मनुष्य मुझे भजते हैं- दुखी, जिज्ञासु, कुछ प्राप्ति की इच्छा वाले और ज्ञानी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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