गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
छठा अध्याय
ध्यानयोग
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूता न चात्मनि। सर्वत्र समभाव रखने वाला योगी अपने को सब भूतों में और सब भूतों को अपने में देखता है। यो मां पश्यति सर्वत्र सर्व च मयि पश्यति। जो मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, वह मेरी दृष्टि से ओझल नहीं होता और मै उसकी दृष्टि से ओझल नहीं होता। सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित:। मुझमें लीन हुआ जो योगी भूत मात्र में रहने वाले मुझको भजता रहता है, वह चाहे जिस तरह बर्तता हुआ भी मुझमें ही बर्तता है। टिप्पणी- ʻआप̕ जब तक है तब तक तो परमात्मा ʻपर̕ है, ʻआप̕ मिट जाने पर, शून्य होने पर ही एक परमात्मा को सर्वत्र देखता है।[1] आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन। हे अर्जुन! जो मनुष्य अपने जैसा सबको देखता है और सुख हो या दु:ख, दोनों को समान समझता है, वह योगी श्रेष्ठ गिना जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अध्याय 13-23 की टिप्पणी देखिए
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