गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
पांचवां अध्याय
कर्मसंन्यासयोग
कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्। जो अपने को पहचानते हैं, जिन्होंने काम-क्रोध को जीता है और जिन्होंने मन को वश किया है, ऐसे यतियों को सर्वत्र ब्रह्म निर्वाण ही है। स्पर्शान्कृत्वा वहिर्वाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवो:। बाह्य विषय-भोगों का बहिष्कार करके, दृष्टि को भृकुटी के बीच में स्थिर करके, नासिका द्वारा आने-जाने वाले प्राण और अपान वायु की गति को एक समान रखकर, इंद्रिय, मन और बुद्धि को वश में करके तथा इच्छा, भय और क्रोध से रहित होकर जो मुनि मोक्षपरायण रहता है,वह सदा मुक्त ही है। टिप्पणी- प्राणवायु अंदर से बाहर निकलने वाली और अपान बाहर से अंदर जाने वाली वायु है। इन श्लोकों में प्राण- यामादि यौगिक क्रियाओं का समर्थन है। प्राणायामादि तो बाह्य कियाएं हैं और उनका प्रभाव शरीर को स्वस्थ रखने और परमात्मा के रहने योग्य मंदिर बनाने तक ही परिमित है। भोगी का साधारण व्यायामादि से जो काम निकलता है, वही योगी का प्राणायामादि से निकलता है। योगी के व्यायामादि उसकी इद्रियों को उत्तेजित करने में सहायता पहुँचाते हैं। प्राणायामादि योगी के शरीर को निरोगी और कठिन बनाने पर भी, इंद्रियों को शांत रखने में सहायता करते हैं आजकल प्राणायामादि की विधि बहुत ही कम लोग जानते है और उनमें भी बहुत थोडे़ उसका सदुपयोग करते हैं। जिसने इन्द्रिय, मन और बुद्धि पर अधिक नहीं तो प्राथमिक विजय प्राप्त की है, जिसे मोक्ष की उत्कट अभिलाषा है, जिसने रागद्वेषादि को जीतकर भय को छोड़ दिया है, उसे प्राणायामादि उपयोगी और सहायक होते हैं, अंत: शौच-रहित प्राणायामादि बंधन का एक साधन बनकर मनुष्य को मोह-कूप में अधिक नीचे ला जा सकते हैं, ले जाते हैं, ऐसा बहुतों का अनुभव है। इससे योगींद्र पतंजलि ने यम-नियम को प्रथम स्थान देकर उसके साधक के लिए ही मोक्षमार्ग में प्राणायामादि को सहायक माना है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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