गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
पांचवां अध्याय
कर्मसंन्यासयोग
ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एवते। विषय जनित भोग अवश्य दु:खों के कारण हैं। हे कौंतेय! वे आदि और अन्त वाले हैं। बुद्धिमान मनुष्य उनमें नहीं फंसता। शक्नोतीहैव य: सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्। देहांत के पहले जिस मनुष्य ने इस देह से ही काम और क्रोध के वेग को सहन करने की शक्ति प्राप्त की है उस मनुष्य ने समत्व को पाया है, वह सुखी है। टिप्पणी- मरे हुए शरीर को जैसे इच्छा या द्वेष नहीं होता, सुख-दु:ख नहीं होता, वैसे जो जीवित रहते भी मृत समान, जड़ भरत की भाँति देहातीत रह सकता है वह इस संसार में विजयी हुआ है और वह वास्तविक सुख को जानता है। योऽन्त: सुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव य:। जिसे आंतरिक आनन्द है, जिसके हृदय में शांति है, जिसे निश्चित रूप से अंतर्ज्ञान हुआ है वह ब्रह्मरूप हुआ योगी ब्रह्म- निर्माण पाता है। लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषय: क्षीणकल्मषा:। जिनके पाप नष्ट हो गए हैं, जिनकी शंकाएं शांत हो गई हैं, जिन्होंने मन पर अधिकार कर लिया है और जो प्राणीमात्र के हित में ही लगे रहते हैं, ऐसे ऋषि ब्रह्म निर्वाण पाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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