गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
पांचवां अध्याय
कर्मसंन्यासयोग
न कृतैत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु:। जगत का प्रभु न कर्त्तापन को रचता है, न कर्म रचता है, न कर्म और फल का मेल साधता है। प्रकृति ही सब करती है। टिप्पणी- ईश्वर कर्ता नहीं है। कर्म का नियम अटल और अनिवार्य है और जो जैसा करता है उसको वैसा भरना ही पड़ता है। इसी में ईश्वर की महान दया और उसका न्याय विद्यमान है। शुद्ध न्याय में शुद्ध दया है। न्याय की विरोधी दया, दया नहीं है, बल्कि क्रूरता है। पर मनुष्य त्रिकालदर्शी नहीं है। अत: उसके लिए तो दया-क्षमा का याचक है। वह दूसरे का न्याय का पात्र बना हुआ क्षमा का याचक है। वह दूसरे का न्याय क्षमा से ही चुका सकता है। क्षमा के गुण का विकास करने पर ही अंत में अकर्त्ता योगी समतावान कर्म में कुशल बनता है। नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभु:। ईश्वर किसी के पाप या पुण्य को नहीं ओढ़ता। अज्ञान द्वारा ज्ञान के ढक जाने से लोग मोह में फंसते हैं। टिप्पणी- अज्ञान से ʻमैं करता हूं̕ इस वृत्ति से मनुष्य कर्म बन्धन बांधते हुए भी भले-बुरे फल का आरोप ईश्वर पर करता है, यह मोह-जाल है। ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मन:। परंतु जिनके अज्ञान का आत्मज्ञान द्वारा नाश हो गया है, उनका वह सूर्य के समान, प्रकाशमय ज्ञान परम तत्व का दर्शन कराता है। तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणा:। ज्ञान द्वारा जिनके पाप धूल गय हैं, वे ईश्वर का ध्यान धरने वाले, तन्मय हुए, उसमें स्थिर रहने वाले, उसी को सर्वस्व मानने वाले लोग मोक्ष पाते है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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