गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
पांचवां अध्याय
कर्मसंन्यासयोग
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गत्यक्त्वा करोति य:। जो मनुष्य कर्मों को ब्रह्मार्पण करके आसक्ति छोड़कर आचरण करता है वह पाप से उसी तरह अलिप्त रहता है जैसे पानी में रहने वाला कमल अलिप्त रहता है। कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि। शरीर से, मन से, बुद्धि से या केवल इंद्रियों से भी योगीजन आसक्ति-रहित होकर आत्म-शुद्धि के लिए कर्म करते हैं। युक्त: कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्। समतावान कर्मफल का त्याग करके परम शान्ति पाता है। अस्थिर चित्त कामना युक्त होने के कारण फल में फंसकर बंधन में रहता है। सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी। संयमी पुरुष मन से सब कर्मों का त्याग करके नवद्वार वाले नगर रूपी शरीर में रहते हुए भी, कुछ न करता, न कराता हुआ सुख से रहता है। टिप्पणी- दो नाक, दो कान, दो आंखें, मलत्याग के दो स्थान और मुख, शरीर के नौ मुख्य द्वार हैं। वैसे तो त्वचा के असंख्य छिद्रमात्र दरवाजे ही हैं। इन दरवाजों का चौकीदार यदि इनमें आने-जाने वाले अधिकारियों को ही आने-जाने देकर अपना धर्म पालता है तो उसके लिए कहा जा सकता है कि वह, यह आवाजाही होते रहने पर भी, उसका हिस्सेदार नहीं बल्कि केवल साक्षी है, इससे वह न करता है, न कराता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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