गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
चौथा अध्याय
ज्ञानकर्मसंन्यासयोग
अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे। कितने ही प्राणायाम में तत्पर रहने वाले अपान को प्राण-वायु में होमते हैं, प्राण को अपान में होमते हैं अथवा प्राण और अपान दोनों का अवरोध करते हैं। टिप्पणी- ये तीन प्रकार के प्राणायाम हैं - रेचक, पूरक और कुंभक। संस्कृत में प्राणवायु का अर्थ गुजराती और हिंदी की अपेक्षा उलटा है। वहाँ प्राणवायु अंदर से बाहर निकलने वाली वायु को कहते हैं। इस प्रकार से हम जिसे अंदर खींचते हैं उसे प्राणवायु (आक्सीजन) कहते हैं। अपरे नियताहारा: प्राणान्प्राणेषु जुह्वति। इसके सिवा दूसरे आहार का संयम करके प्राणों को प्राण में होमते हैं। यज्ञों द्वारा अपने पापों को क्षीण करने वाले ये सब यज्ञ के जानने वाले हैं। यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्। हे कुरुसत्तम! यज्ञ से बचा हुआ अमृत खाने वाले लोग सनातन ब्रह्म को पाते हैं। यज्ञ न करने वाले के लिए यह लोक नहीं है तो परलोक तो हो ही कहाँ से सकता है। एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे। इस प्रकार वेद में अनेक प्रकार के यज्ञों का वर्णन हुआ है। इन सबको कर्म से उत्पन्न हुआ जान। इस प्रकार सबको जानकर तू मोक्ष पावेगा। टिप्पणी- यहाँ कर्म का व्यापक अर्थ है। अर्थात शारीरिक, मानसिक और आत्मिक। ऐसे कर्म के बिना यज्ञ नही हो सकता। यज्ञ बिना मोक्ष नहीं होता। इस प्रकार जानना और तदनुसार आचरण करना, इसका नाम यज्ञों का पालना है। तात्पर्य यह कि मनुष्य अपने शरीर, बुद्धि और आत्मा को प्रभुप्रीत्यर्थ - लोकसेवार्थ काम में न लावे तो वह चोर ठहरता है और मोक्ष के योग्य नहीं बन सकता। केवल बुद्धि शक्ति को ही काम में लावे और शरीर तथा आत्मा को चुरावे तो वह पूरा याज्ञिक नहीं है। इन शक्तियों को प्राप्त किए बिना उसका परोपकारार्थ उपयोग नहीं हो सकता। इसलिए आत्म-शुद्धि के बिना लोकसेवा असंभव है। सेवक को शरीर, बुद्धि और आत्मा अर्थात नीति, तीनों का समान रूप से विकास करना कर्त्तव्य है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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