गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-2: परम रहस्य
14.त्रैगुणातीत्य
यदि हमें निम्नतर क्रिया की विमोहक शक्ति से परे हटकर अपनी पूर्ण-सचेतन सत्ता में पुनः प्रवेश करना है और आत्मा की मुक्ति प्रकृति तथा उसकी नित्य अमरता को धारण करना है तो प्रकृति के गुणों से ऊपर उठना, त्रैगुण्यातीत होना परमआवश्यक है। यही वह साधर्म्य की अवस्था है जिसकी व्याख्या करने की ओर गीता अब अग्रसर होती है। इसकी ओर संकेत तो वह पिछले अध्याय में भी कर चुकी है और कुछ बल के साथ इसका प्रतिपादन भी कर आयी है; किंतु अब उसे अधिक सुनिश्चित शब्दों में यह बतलाना है कि ये गुण क्या हैं, जीव को ये किस प्रकार बांधते तथा आध्यात्मिक स्वातंत्र्य से दूर रखते हैं, जीव को ये किस प्रकार से ऊपर उठने का क्या अभिप्राय है? प्रकृति के सभी अपने सार-रूप में गुणात्मक (qualitative)है और इसी कारण वे उसके गुण कहलाते हैं। जगद्-विषयक किसी भी आध्यात्मिक परिकल्पना में ऐसा होना आवश्यक ही हैः कारण, आत्मा और जड़तत्त्व को जोड़ने वाला माध्यम चैत्य या आत्म-शक्ति को ही होना चाहिये तथा प्रारंभिक क्रिया मानस-चित्तात्मक (psychological) एवं गुणात्मक होनी चाहिये, न कि भौतिक और परिमाणात्मक; क्योंकि गुण विश्व-शक्ति के समस्त व्यापार में अभौतिक एवं अधिक आध्यात्मिक तत्त्व हैं, उसकी आद्य गतिशक्ति हैं भौतिक विज्ञान की प्रधानता ने हमें प्रकृति संबंधी एक और ही दृष्टिकोण का अभ्यस्त बना दिया है, क्योंकि वहाँ जो सबसे पहली चीज हमें प्रभावित करती है वह है-उसकी क्रियाओं के परिमाणात्मक रूप का महत्त्व तथा आकारों के निर्माण के लिये परिमाणात्मक संयोगों एवं विन्यासों पर उसकी निर्भरता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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