गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-2: परम रहस्य
14.त्रैगुणातीत्य
अवशं प्रकृतेर्वशात जो अपने आंतर आध्यात्मिक सत्स्वरूप और अपने अंतर्निहित परमेश्वर को भूले हुए हैं। अपने सत्स्वरूप का ज्ञान तथा जीव और प्रकृति के प्रतीयमान संबंधों से इतर उनके वास्तविक संबंधों का ज्ञान फिर से प्राप्त करना, ईश्वर को, अपने-आप तथा जगत् को अब और भौतिक या बहिर्मुख अनुभव के द्वारा नहीं वरन् आध्यात्मिक अनुभव के द्वारा जानना, इन्द्रिय -मानस तथा बहिर्मुखी बुद्धि के भ्रामक एवं प्रतिभासिक बोधों के द्वारा नहीं, वरन् आभ्यंतरिक आत्म-चेतन्य के गभीरतम सत्य के द्वारा जानना इस सिद्धि का अनिवार्य साधन हैं आत्म-ज्ञान एवं ईश्वर-ज्ञान के बिना तथा अपनी प्राकृतिक सत्ता के संबंध में आध्यात्मिक भाव धारण किये बिना सिद्धि नहीं प्राप्त हो सकती, और इसी कारण प्राचीन मनीषियों ने ज्ञान के द्वारा मुक्ति के प्राप्त होने पर इतना अधिक बल दिया था,-’ज्ञान का मतलब यहाँ वस्तुओं का बौद्धिक बोध नहीं, वरन् मनोमय प्राणी, मनुष्य का महत्तर अध्यात्म-चेतना में विकसित होना हैं आत्म-सिद्धि के बिना, अर्थात् आत्मा के दिव्य प्रकृति में विकसित हुए उसको मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकती; न्यायकारी ईश्वर अपने मन की मौज या अपनी कृपा की किसी मनमानी सनक के द्वारा इसे हमारे लिये साधित नहीं कर देंगें। दिव्य कर्म मुक्ति की प्राप्ति करने में सक्षम हैं, क्योंकि वे हमें हमारी अपनी सत्ता के अंतरस्थ प्रभु के साथ बढ़ते हुए एकत्व के द्वारा इस सिद्धि की ओर तथा आत्म, प्रकृति और ईश्वर के ज्ञान की ओर ले जाते हैं। दिव्य प्रेम भी सक्षम है, क्योंकि उसके द्वारा हम अपनी भक्ति के एकमात्र परम भजन के साथ उत्तरोत्तर साधर्म्य लाभ करते हैं और उन ‘परम’ के प्रत्युत्तरशील प्रेम का आवाहन करते हैं ताकि वह प्रेम हमें उनके ज्ञान की ज्योति से तथा उनकी सनातन आत्मा की उन्नायक शक्ति एवं पवित्रता से परिप्लावित कर दे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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