गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-2: परम रहस्य
14.त्रैगुणातीत्य
वे यहाँ घट-घटवासी हैं, पर प्रत्येक घट में वे अजन्मा के रूप में ही विद्यमान हैं, इस प्राकट्य के द्वारा वे अपनी चेतना में परिच्छिन्न नहीं होते, जिस भौतिक प्रकृति को वे धारण करते हैं उससे तद्रूप नहीं हो जाते; क्योंकि वह तो उनकी सत्ता के लीलामय जगद्-व्यापार की एक गौण घटना मात्र है। पुरुषोत्तम की इस नित्य-सचेतन सनातन सत्ता में निवास करना ही मुक्ति एवं अमरता है।१ परंतु यहाँ इस महत्तर आध्यात्मिक अमरत्व तक पहुँचने के लिये देहधारी जीव को अपरा प्रकृति के नियम के अनुसार निवास करना छोड़ देना होगा; उसे भगवान् की परम जीवनधारा का विधान अपनाना होगा, जो वस्तुतः उसकी अपनी सनातन सारभूत सत्ता का वास्तविक विधान हैं अपनी गुप्त मूल सत्ता के समान ही अपने भूतभाव के आध्यात्मिक विकास में भी उसे भगवान् के समान धर्मवाला बनना होगा। और यह महान् कार्य, मानव-प्रकृति से दैवी प्रकृति में यह आरोहण हम ईश्वरोन्मुख ज्ञान, संकल्प और उपासनारूपी पुरुषार्थ के द्वारा ही संपन्न कर सकते हैं। कारण, परम देव के द्वारा अपने सनातन अंश के रूप में भेजा हुआ जीव विश्व-प्रकृति के व्यापारों में [1] उनका अमर प्रतिनिधि होता हुआ भी उन व्यापारों के स्वरूप के कारण अपनी बाह्य चेतना में अपने-आपको प्रकृति की सीमाकारी अवस्थाओं के साथ उन मन, प्राण और शरीर के साथ तदाकार करने के लिये विवश हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ध्यान में रहे कि गीता में कहीं भी इस बात का कोई संकेत नहीं है कि व्यष्टिभूत आध्यात्मिक सत्ता का अव्यक्त, अनिर्देश्य, या परब्रह्म में लय होना ही अमरता का सच्चा अर्थ या उसकी सच्ची स्थिति है या योग का वास्तविक लक्ष्य है।बल्कि आगे चलकर वह कहती है कि अमरता ईश्वर के अंदर उनके परम धाम में निवास करना है, परं धाम और यहाँ वह कहती है कि अमरता साधमर्य या परा सिद्धि है, अर्थात् अमरता का अभिप्राय है अपनी सत्ता और प्रकृति के धर्म में पुरुषोत्तम के समान धर्मवाला होना, किंतु फिर भी अस्तित्व में बने रहना तथा विश्व-प्रवाह से सचेतन होते हुए भी उसे उपर उठे रहना, जैसे सब मुनि अभी भी रहते हैं, वे सृष्टिकाल में जन्म के अधीन नहीं होते, युगचक्रों के प्रलय के काल में व्यथित नहीं होते।
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