गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-2: परम रहस्य
13.क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ
प्रकृति के अंदर यह जगत् को उस रूप में जानता है जिस रूप में यह इस एक सीमित शरीर में चेतना को प्रभावित करता तथा इसके अंदर प्रतिबिम्बत होता है; इस समय तो जगत् हमारे लिये वैसा ही है जैसा यह हमारे पृथक् मन के अंदर दिखायी देता है,-पर अंत में यह छोटी-सी दीखने वाली देहबद्ध चेतना भी अपने को इतना विस्तृत कर सकती है कि यह अपने अंदर संपूर्ण विश्व को समा ले, आत्मनि विश्वदर्शनम्। परंतु भौतिक रूप में, यह ब्रह्यांड में एक पिंड मात्र ही है, और ब्रह्यांड में भी, यह विशाल विश्व भी एक देह एवं क्षेत्र है जिसमें क्षेत्रज्ञ आत्मा निवास करती है। यह बात तब स्पष्ट हो जाती है जब गीता हमारी सत्ता की इस गोचर देह के स्वरूप, प्रकति एवं उद्गम का तथा उसके विकारों एवं शक्तियों का निरूपण करने की ओर अग्रसर होती है। तब हम देखते हैं कि अपरा प्रकृति का सारा ही कार्य-व्यापार ‘क्षेत्र’ शब्द से अभिप्रेत है वह संपूर्ण व्यापार यहाँ हमारी अंतःस्थ देहधारी आत्मा का कर्मक्षेत्र है, एक ऐसा क्षेत्र है जिसका वह बोध प्राप्त करती है। प्रकृति-निर्मित यह समस्त जगत अपने मूल व्यापार में आध्यात्मिक और बिंदु से जैसा दिखायी देता है उसका विविध और विस्तृत ज्ञान प्राप्त करने के लिये हमें प्राचीन ऋषियों, वैदिक और औपनिषद ऋषियों के छंदों की ओर संकेत किया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उपनिषद् कहती है कि प्रकृति के पांच प्रकार के शरीर या कोष हैं, अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय तथा दिव्य शरीर; इन्हें संपूर्ण क्षेत्र, ‘क्षेत्रम्’ समझा जा सकता है।
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