गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
9.विभूति और सिद्धांत
यह एक ऐसा सत्य है जिसे सब प्राचीन संस्कृतियां स्वीकृत और सामदृत करती थीं, परंतु आधुनिक मन के एक पार्श्व को इस विचार के प्रति अपूर्व घृणा है, वह इसमें निरे शक्ति-सामर्थ्य की पूजा, अज्ञानपूर्ण या आत्म-पतनकारी वीर-पूजा या आसुरी अतिमानव के सिद्धांत को ही देखता है। निःसदेह, जैसे सभी सत्यों को ग्रहण करने का एक अज्ञानमय तरीका है वैसे ही इस सत्य को ग्रहण करने का भी एक अज्ञानमय तरीका है; परंतु प्रकृति की दिव्य नियम-व्यवस्था में इसका अपना एक विशेष स्थान है, एक अनिवार्य कार्य है। गीता इसे उस समुचित स्थान में तथा उस दृष्टि -बिंदु से हमारे सामने रखती है। इसे सब मनुष्यों तथा सब प्राणियों में विद्यमान दिव्य आत्मा के प्रत्यभिज्ञान पर आधारित होना होगा; बड़ी और छोटी, प्रसिद्ध तथा अप्रसिद्ध सब अभिव्यक्तियों के साथ इसे हार्दिक समभावपूर्वक सुसंगति रखनी होगी। अज्ञानी, दीन, अभिव्यक्तियों के साथ इसे हार्दिक समभावपूर्वक सुसंगति रखनी होगी। स्वयं विभूति में भी जिस प्रकार सत्ता को इस प्रकार स्वीकृत तथा सम्मानित करना होगा वह बाह्य व्यक्ति नहीं, बल्कि वे एकमात्र देवाधिदेव हैं जो अपने-आपको उस शक्ति में प्रकट करते हैं, हां, प्रतीक–रूप में व्यक्ति की स्वीकृति और सम्मान एक अलग बात है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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