गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
8.भगवान् और संभूति–शक्ति
मेरी दिव्य विभूतियों की कोई गणना या सीमा नहीं है; जो कुछ मैंने कहा है वह एक संक्षिप्त निरूपण से अधिक कुछ नहीं और मैंने केवल कुछ प्रमुख संकेतों पर ही प्रकाश डाला है और अनंत सत्यताओं की और एक दृढ़ मार्ग खोल दिया है। संसार में जो कोई भी सुन्दर और विभूतिशाली प्राणी तुम देखते हो, मनुष्यों में तथा मनुष्यों से ऊपर और उससे नीचे जो कोई भी शक्तिशाली और ऊर्जस्वी सत्ता है उसे तुम मेरा ही तेज, ज्योति और शक्ति समझों, मेरी ही सत्ता के तेजस्वी अंश और प्रखर शक्ति से उत्पन्न जानो। परंतु इस ज्ञान के लिये अनेक व्योरों की आवश्यकता ही क्या है? इसे यूं समझो कि मैं क्या इस संसार में हूँ और सब जगह हूं, मैं सबमें हूं, और सब कुछ हूं; मेरे सिवा और कुछ भी नहीं है, मेरे बिना किसी भी चीज का अस्तित्व नहीं है। इस संपूर्ण ब्रह्यांड को मैं अपनी असीम शक्ति की एक ही कला तथा अपने अगाध आत्मा के एक सूक्ष्मातिसूक्ष्म अंश से ही धारण करता हूं; ये सब भुवन उस नित्य अपरिमेय ‘मैं हूं’, अहमस्मि के स्फुलिंग, संकेत और रश्मियां मात्र हैं।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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