गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
7.गीता का महाकाव्य
वह प्रगाढ़ आनंद मन के इधर-उधर छितरे हुए बहिर्भूत जीवन-सुख का स्थान स्वयं ग्रहण कर लेता है; बल्कि यह कहिये कि वह परमानंद और सब सुखों को अपने अंदर खींच लेता और एक विलक्षण रसक्रिया के द्वारा मन-बुद्धि और हृदय के सब भावों और इन्द्रियों के सब व्यापारों को रूपांतरित कर डालता है। सारी चेतना ईश्वरवादी हो जाती और ईश्वर की प्रत्युत्तर देती चेतना से भर जाती है; सारा जीवन-प्रवाह आनंदानुभव के समुद्रों में जा मिलता है। ऐसे भक्तों के सब भाषण और चिंतन भगवान् के ही संबंध में परस्पर कथन और बोधन होते हैं। उस एक आनंद में पुरुष का सारा संतोष और प्रकृति की सारी क्रीड़ा और सुख केद्रीभूत हैं। चिंतन और स्मरण में वही मिलन क्षण-प्रतिक्षण सतत होता रहता है, आतम के अंदर अपने आत्मैक्य की अनुभूति निरंतर बनी रहती है। और जिस क्षण से इस आंतरिक स्थिति का आरंभ होता है उसी क्षण से, अपूर्णता की उस अवस्था में भी, भगवान् पूर्ण बुद्धियोग के द्वारा उसे दृढ़ करते हैं। हमारे अंदर में जो प्रज्जवलित ज्ञानदीप है उसे उठाकर वे दिखाते हैं और पृथग्भूत मन और बुद्धि का अज्ञान नष्ट कर मानव आत्मा के अंदर स्वयं प्रकट होते हैं। इस प्रकार कर्म और ज्ञान के ज्ञानदीप मिलन पर आश्रित बुद्धियोग के द्वारा जीव अधःस्थित त्रस्त मन की परंपरा से निकलकर कर्मकत्री प्रकृति के ऊपर साक्षी चैतन्य अक्षर शांति को प्राप्त हो चुका। पर अब इस महत्तर बुद्धियोग के द्वारा जिसका आधार भक्ति-प्रेम और समग्र ज्ञान-विज्ञान का ज्ञानदीप्त मिलन है, जीव एक बृहत् महाभाव में डूबकर उन परम पुरुष परमेश्वर को प्राप्त होता है जो एकमेवाद्वितीय हैं, सर्व हैं और सर्व के स्वयं प्रभव हैं। इस प्रकार सनातन पुरुष व्यष्टिपुरुष और व्यष्टिप्रकृति में भर जाते हैं ; व्यष्टिपुरुष काल के अंदर आवागमन से निकलकर सनातन के अनंत भावों को प्राप्त होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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