गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 327

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
7.गीता का महाकाव्य


भागवत सत्ता के अंतर्दर्शन और भागवत सहानुभूति के द्वारा और अंत में सुदृढ़ आंतरिक अभेद स्थिति के द्वारा उसे विश्व के साथ एकीभूत होकर विश्वमय बनना पड़ता हैं अक्रिय निरपेक्ष अभेद्-भाव में प्रेम और कर्म के लिये कोई स्थान नहीं रहता। पर यह अधिक विशाल और समृद्ध अभेदभाव कर्मों के द्वारा तथा विशुद्ध प्रेमभाव के द्वारा अपने-आपको परिपूर्ण करता है; हमारे सब कर्मों और भावों का मूल उद्गम-स्थान, आश्रय, सार, प्रेरक भाव और आलौकिक प्रयोजन बनता है। किस देवता को हम लोग अपना जीवन और अपने कर्म नैवेद्य के तौर पर भेंट करें? ये ही वे भगवान् हैं, वे प्रभु हैं, जो हमारे यजन के अधिकारी हैं। अक्रिय निरपेक्ष अभेद-भाव में पूजा और भक्तिभाव का कोई आनंद नहीं रहता; पर भक्ति तो इस अधिक समृद्ध; अधिक पूर्ण और अधिक घनिष्ट मिलन की साक्षात् आत्मा और हृदय और शिखर है। इन्हीं भगवान् में पिता, माता, प्रेमी, सखा, सर्वभूतों के अंतरात्मा के आश्रम-ये सभी संबंध अपनी पूर्ण परितृपप्ति लाभ करते हैं। ये ही एकमेवी परम और विश्वव्यापक देव, आत्मा, पुरुष, ब्रह्म, औपनिषद ईश्वर हैं। इन्होंने ही अपने अंदर इन सब विभिन्न रूपों में अपने ऐश्वर योग के द्वारा जगत् को प्रकट किया है; इसके अनेकानेक विविध भूतभाव इनके अंदर एक हैं और ये उन सबके अंदर विविध रूपों में एक हैं। एक साथ इन सब रूपों में उन्हें देखने के लिये मनुष्य का जाग उठना उसी ऐश्वर योग का मानवी पहलू है।

भगवान् के उपदेश का यही परम और पूर्ण अर्थ है, यही समग्र ज्ञान है, जिसे प्रकट करने का भगवान् ने वचन दिया था, इस बात की पूर्णतया और असंदिग्ध रूप से स्पष्ट करने के लिये भागवत अवतार अबतक जो कुछ कहते रहे हैं उसीके निष्कर्ष को सारांश रूप से कहकर यह बतलाते हैं कि, यही, कोई अन्य नहीं, मेरा परमं वच:, परम वचन है। भूय एव श्रृणु मे परमं वच:[1] --मेरे परम वचन को फिर से सुनो। ‘‘हम देखते हैं कि गीता का यह परम वचन, प्रथमतः यही स्पष्ट और असंदिग्ध घोषणा है कि भगवान् की परमा भक्ति और परम ज्ञान उन्हें इस रूप में जानना और पूजना है कि वे, जो कुछ हैं उसके परम और दिव्य मूल हैं और इस जगत् तथा इसके प्राणियों के सर्वशक्तिमान् परमेश्वर हैं और जितने पदार्थ हैं सब उन्हींकी सत्ता के भूतभाव हैं। इस परम वचन में दूसरी फिर यह है कि एकीभूत ज्ञान और भक्ति को परम योग कहा गया है; यही सनातन पुरुष परमेश्वर के साथ मिलन लाभ करने का मनुष्य के लिये सुनिश्चित और स्वाभाविक मार्ग है। और मार्ग के इस निर्देश को और भी अर्थपूर्ण रूप से प्रकट करने के लिये, यह भक्ति जो ज्ञान पर प्रतिष्ठित और ज्ञान की ओर उन्मुख तथा भगवन्नियत कर्मों की भित्ति और चालक शक्ति है इसके अत्यधिक महत्त्व को हृदय में प्रकाशित करने के लिये यह बतलाया जाता है कि शिष्य अपने सर्वांतःकरण और हृदय से इस मार्ग को पहले ग्रहण कर ले, तभी वह आगे बढ़ सकता है और मानव यंत्र अर्जुन की तरह अंत में भगवन्मुख से कर्म का वह अंतिम आदेश सुनने का अधिकारी हो सकता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 10.1

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