गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
7.गीता का महाकाव्य
यह ईश्वर भगवान् का कोई विशिष्ट नाम और रूप नहीं, वह इष्टदेवता नहीं जिसे उपासक की बुद्धि ने कल्पित किया हो अथवा उसकी कोई विशिष्ट अभीप्सा जिसमें मूर्त हुई हो। ऐसे सब नाम और रूप उन एक देव की केवल शक्तियां और मूर्तियां हैं जो सब उपासकों और संप्रदायों के जगदीश्वर हैं; ये देव-देव हैं। ये ईश्वर अपौरूषेय अलक्षणीय ब्रह्म का भ्रमात्मक माया के अंदर प्रतिबिम्ब नहीं हैं; क्योंकि सारे विश्व के परे से तथा विश्व के अंदर से भी वे इस लोकों और उनमें रहने वाले जीवों का शासन करते हैं तथा उनके प्रभु हैं वे वैसे परब्रह्म हैं जो परमेश्वर हैं क्योंकि वे ही परम पुरुष और परम आत्मा हैं, वे ही अपने परतम मूल स्वरूप से विश्व को उत्पन्न करते और उसका शासन करते हैं, माया के वश होकर नहीं बल्कि अपनी सर्वज्ञ सर्वशक्तिमत्ता से। जगत् में उनकी भगवत प्रकृति का जो कार्य होता है वह भी उनकी या हमारी चेतना को कोई भ्रम नहीं है। भ्रम में डालने वाली माया तो केवल निम्न प्रकृति के अज्ञान की हुआ रकती है। यह निम्न प्रकृति एकमेव निरपेक्ष ब्रह्म की अगोचर सत्ता के आधार पर असत् पदार्थों की निर्माणकत्री नहीं है, बल्कि इसकी अंध भाराक्रांत परिच्छिन्न कार्यप्रणाली अहंकार का रूपक बांधकर तथा मन, प्राण और जड़ शरीर के अधूरे रूपकों द्वारा जीवन के महत्तर अभिप्राय को, जीवन के गंभीरतर सत्स्वरूप को मानवी बुद्धि के सामने कुछ-का-कुछ और ही भासित करती है। एक परा, भागवती प्रकृति है जो विश्वसृष्टि की वास्तविक कत्रीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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