गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 325

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
7.गीता का महाकाव्य


आत्मा की उस स्थिर शांत ब्राह्मी स्थिति में समवस्थित रहते हुए भी प्रकृति का बहुविध कर्म हो सकता है; कारण द्रष्टा आत्मा अक्षर पुरुष है और पुरुष का प्रकृति के साथ किसी-न-किसी प्रकार का संबंध सदा रहता ही है। पर अब निष्कर्म और सकर्म के इस द्विविध स्वरूप का कारण उसके पूर्ण आशय के साथ खोलकर बतला दिया गया, क्योंकि निष्क्रिय सर्वव्यापक ब्रह्म भगवान् के सत्स्वरूप का केवल एक अंग है। वही एक अविकार्य आत्मा जो जगत् में व्याप्त और प्रकृति के सब विकारों का आश्रय है, वही, समरूप से मनुष्य में स्थित ईश्वर, प्रत्येक प्राणी के हृदय में रहनेवाला प्रभु, हमारे संपूर्ण अंतःकरण तथा बाहर से अंदर लेने ओर अंदर से बाहर भेजने की उसकी सारी ब्रह्म एक क्रिया का सज्ञान कारण और स्वामी है। योगियों का ईश्वर और ज्ञानमार्गियों का ब्रह्म एक ही है, वही परमात्मा और जगात्मा है, वही परमेश्वर और जगदीश्वर है। यह ईश्वर वैसा सीमित व्यष्टिभूत ईश्वर नहीं है जैसा कुछ लौकिक संप्रदाय माना करते हैं; ईश्वर के वैसे व्यष्टिभूत रूप तो ईश्वर की समग्र सत्ता के इस अन्य पहलू के-जो सर्जन करता और संचालन करता है तथा जो व्यष्टिकरण का पहलू है, उसके केवल आंशिक और बाह्म विग्रहमात्र हैं। यह ईश्वर एकमेव परम पुरुष परमात्मा, परमेश्वर है, सब देवता जिसके विभिन्न रूप हैं, सारी पृथक्व्यष्टिभूत सत्ता इस विश्व-प्रकृति में जिसके आविर्भाव की एक परिमित मात्रा है।

यह ईश्वर भगवान् का कोई विशिष्ट नाम और रूप नहीं, वह इष्टदेवता नहीं जिसे उपासक की बुद्धि ने कल्पित किया हो अथवा उसकी कोई विशिष्ट अभीप्सा जिसमें मूर्त हुई हो। ऐसे सब नाम और रूप उन एक देव की केवल शक्तियां और मूर्तियां हैं जो सब उपासकों और संप्रदायों के जगदीश्वर हैं; ये देव-देव हैं। ये ईश्वर अपौरूषेय अलक्षणीय ब्रह्म का भ्रमात्मक माया के अंदर प्रतिबिम्ब नहीं हैं; क्योंकि सारे विश्व के परे से तथा विश्व के अंदर से भी वे इस लोकों और उनमें रहने वाले जीवों का शासन करते हैं तथा उनके प्रभु हैं वे वैसे परब्रह्म हैं जो परमेश्वर हैं क्योंकि वे ही परम पुरुष और परम आत्मा हैं, वे ही अपने परतम मूल स्वरूप से विश्व को उत्पन्न करते और उसका शासन करते हैं, माया के वश होकर नहीं बल्कि अपनी सर्वज्ञ सर्वशक्तिमत्ता से। जगत् में उनकी भगवत प्रकृति का जो कार्य होता है वह भी उनकी या हमारी चेतना को कोई भ्रम नहीं है। भ्रम में डालने वाली माया तो केवल निम्न प्रकृति के अज्ञान की हुआ रकती है। यह निम्न प्रकृति एकमेव निरपेक्ष ब्रह्म की अगोचर सत्ता के आधार पर असत् पदार्थों की निर्माणकत्री नहीं है, बल्कि इसकी अंध भाराक्रांत परिच्छिन्न कार्यप्रणाली अहंकार का रूपक बांधकर तथा मन, प्राण और जड़ शरीर के अधूरे रूपकों द्वारा जीवन के महत्तर अभिप्राय को, जीवन के गंभीरतर सत्स्वरूप को मानवी बुद्धि के सामने कुछ-का-कुछ और ही भासित करती है। एक परा, भागवती प्रकृति है जो विश्वसृष्टि की वास्तविक कत्रीं है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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