गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 321

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
7.गीता का महाकाव्य


आत्मा और अनात्मा, नित्य अक्षर अलक्ष्य आत्मसत्ता और अन्य सब प्रकार के जीवन, इन दोनों के बीच-ब्रह्म और माया के बीच, अनिर्वचनीय सद्वस्तु और अनिर्वचन का निर्वचन करने का यत्न करने वाले पर निर्वचन न कर सकने वाले सब पदार्थों के बीच-कर्म और निर्वाण के बीच, विश्वप्रकति की कल्पना, उसकी निरंतर क्रियाशीलता के साथ ही उसकी चिंरतन क्षणभंगुरता और उसकी कल्पना और कर्म का एक ऐसा निरपेक्ष अनिर्वचनीय परम निषेध जो प्राण, मन और कर्म से सर्वथा रिक्त है, इन दोनों के बीच पूर्ण विरोध खड़ा किया जाता है। नित्य को पाने के लिये ज्ञान की बलवती प्रवृत्ति अनित्य पदार्थ मात्र से हटा ले जाती है। जीवन के मूल की ओर लौट चलने के लिये जीवन का निषेध करती है, हम जो कुछ समझते हैं कि हम उससे निकलकर जिनके नाम अपौरूषेय सत्तत्त्व को पाने के लिये ‘अभी जो कुछ है’-से मालूम होते हैं उसीका निषेध कर देती है। हृदय की कामनाएं, मन के कर्म और बुद्धि की कल्पनाएं हटा दी जाती हैं; अंत में ज्ञान तक का निषेध किया जाता और अभेद और अज्ञेय में उसीका अंत किया जाता है।

उत्तरोत्तर बढ़नेवाली निष्क्रिय शांति का यह मार्ग जिसका अंत निरपेक्ष नैष्कर्म्य में होता है, इस मायाकृत जीव को अथवा यह कहिये कि जिन सब संस्कारों की इस गठरी को हम अपना-आप कहते हैं, इसकी, आपेकी कल्पना को खत्म कर देता, जीवन-रूपी झूंठ का अंत करता है और स्वयं निर्वाण में समाप्त हो जाता है। परंतु स्व-निषेध का यह कठिन अपकर्षक निरपेक्ष मार्ग, कुछ लोकोत्तर प्रकृतिवाले व्यक्तियों को भले ही अपनी ओर आकर्षित करे, सर्वसामान्य देहधारी मनुष्यों के लिये सुखावह नहीं हो सकता, क्योंकि यह मार्ग मनुष्य की विविध प्रकार की प्रकृति की सब वृत्तियों को सनातन परम की ओर प्रवाहित होने का कोई रास्ता नहीं देता। मनुष्य की केवल निरपेक्ष विचारशीलबुद्धि ही नहीं बल्कि उसका लालसामय हृदय, कर्मप्रवण मन, किसी ऐसे सत्य का अनुसंधान करने वाली उसकी ग्रहणशील बुद्धि जिसमें उसका जीवन और सारे जगत् का जीवन एक बहुविध कुंजी का काम करते हैं, इन सबकी ही नित्य और अनंत की ओर अपनी एक विशेष प्रवृत्ति है और ये सभी उसमें अपना भगवदीय मूल और अपने जीवन तथा अपनी प्रकृति की चरितार्थता ढूढ़ने का यत्न करते हैं। इसी प्रयोजन से भक्ति और कर्म के पोषक धर्म उत्पन्न होते हैं, इनकी यह सामर्थ्य है कि ये हमारे मानव-भाव की अत्यंत कर्मशील और विकसित शक्तियों को संतुष्ट करते और भगवन् की ओर ले जाते हैं, क्योंकि, इन्हींसे प्रारंभ करने से ज्ञान सार्थक होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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